अज्ञेय मिलना चाहते थे, लेकिन जुमई ने उधर रुख नहीं किया!
[हमार पसंदीदा कवि अहीं केशव तिवारी। यह दाईं हम बांदा गा रहेन। हुवां उनसे मुलाकाति भै। वही मुलाकात मा वै आधुनिक अवधी कवि जुमई खां आजाद से अपनी पहिली मुलाकाति कय किस्सा सुनाइन। यादगारी साझा किहिन। हम तब्बै से उनके पीछे लागि गयन कि ई यादगारी लिखि भेजव। आर-टार हुवत रहा, मुला देरय से सही, अब ई सत्य-घटना आपके सामने हाजिर ह्वै पावति अहय। हम केसव जी कय बहुत आभारी अहन्। : संपादक]
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अज्ञेय मिलना चाहते थे, लेकिन जुमई ने उधर रुख नहीं किया!
दिसम्बर के जाड़े के दिन थे, घर गया था। गांव से जिला हेडक्वाटर आना जाना लगा रहता है। बचपन से जुमई खां की कथरी बिल्कुल अपने निपट देहाती जनों से सुनता आ रहा था। आज अचानक गांव के हरकू गडरिया से सुना — कथरी तोहार गुन ऊ जानै जे करै गुजारा कथरी मा। तो फिर तय किया कि आज जुुमई से मिलकर ही लौटूंगा भले बेल्हा में रूकना पडे। खैर मै और मेरा एक रिश्ते का अनुज दोनों निकल पडे।
पहले सुल्तानपुर रोड पर किसी ने बता दिया। वहां झिनका पर लेटे अपने जमाने के नौटंकी के हीरो रामकरन मिले जो दमा के मरीज हो चुके थे। उन्होंने आजाद का पता दिया। हम लैाटे और बिहारगंज से गुबरी गांव के लिये निकल पडे। रास्ते मे पता चला जगेशरगंज स्टेशन के बाहर झगरू की चाय की दुकान पर आजाद का पता चलेगा।
झगरू की दुकान पर पहुंचते ही पता चला कि आजाद आर.पी.से (रायबरेली प्रतापगढ़-संजय पैसेन्जर) से संध्या तक आयेगें, आप चाय पियें, बैठें। हम भी जम गये। झगरू चाय आजाद के नाम लिख लिये और पैसे नही लिये। ये उन्हें आजाद के महमानो के लिये कहा गया था। खैर शाम हुयी और डेली पेसेंन्जर का रेला उतर। उसी मे कमीज पैजामा पहने मझियौले कद का एक व्यक्ति दुकान में घुसा।
झगरू बोले, आजाद ये लेाग चार घंटे से बैठे हैै आपके इंतजार में। वह लपके और गले लग गये। जैसे वर्षो से जान रहे हों। मिलते ही सब अपरिचय छूमंतर हो गया। अब शुरू हुआ बातों का सिलसिला तो एक लडका बोल पडा, आजाद कुछ हुयि जाय। बाबू साहब से तौ तोहार बात चलतइ रही। उन्होंने सहज ही उसकी बात को मान लिया। ये था जन का और उसके कवि का रिश्ता।
जैसे उन्होंने शुरू किया — भरे रे पूंजीपतिया तै रूटिया चोराय चोराय। करीब सौ लोगो का मजमा जुट गया और यातायात बाधित हो गया। धीरे धीरे सब झगरू की दुकान के इर्दगिर्द सिमट आये। ये सम्मान देख मेैं लगभग चकित था और एक दहाडती आवाज गूंज रही थी। अब लोग धीरे धीरे छट चुके थे। शुरू हुआ बातों का सिलसिला।
उसी दौरान बताया कि एक बार काला कांकर के महल में अज्ञेय आये तो धोबियहवा नाच हुआ। पैर मे घुघरू बांधे जब धोबी गाये — बिना काटे भिटवा गडहिया न पटिहैं / अपनी खुसी से धन-धरती न बटिहैं। तुरंत अज्ञेय ने पूछा, यह किसका गीत है? जुमई का लिखा है, यह पता चलते ही स्टेट से एक हरकारा उनका बुलावा लेकर आया। उन दिनों जुमई बहराइच कवि सम्मेलन मे गये थे। लौटे तो पत्र मिला और वाकया पता चला। बोले — “भइया, ई गीत तौ राजा-महाराजा के खिलाफ अहै। कतउ बुलाइ के गड़ियां न धूप देंय। तव हम न गये।”
जुमई एक समय गरीब-गुरबा की आवाज बन गये थे। उनका किसी गांव ठहर जाना, किसी के दरवाजे खा लेना, एक पूरा का पूरा जनपद उनका घर हो गया था। जुमई खां हम से बोले, तुम्हउ सुनावा। कुछ सुनकर बोले — “बात तो खडी में करत हया पर माटी-पानी सब अपनै अहै।”
लेाक के बदलाव के लिये जिस राजनीतिक चेतना की दरकार है, वह अपने जन से द्वन्दात्मक रिश्ता कैसे खोजे, जुमई को यह बात समझ में आ गयी थी। जुमई की कविताई अपने से आगे की कविताई है। भविष्य के लिये एक जमीन तैयार करने का मसला है। जुमई उन कवियों में से थे जो अपनी कविता से अपना जीवन भी चला सकते थे और अपने जन के लिये लड़ भी सकते थे। यही सब उन्हें जुमई बनाता था।
__केशव तिवारी
बड़ा नीक संस्मरण।
जनकवि हूँ मैं क्यों हकलाऊँ।
जुमई खां आजाद की स्मृति को नमन।