पाहीमाफी [१४] : तिरिया-गाथा (१)
आशाराम जागरथ रचित ग्रामगाथा ‘पाहीमाफी’ के “पहिला भाग”, “दुसरका भाग” , तिसरका भाग , चौथा भाग , पंचवाँ भाग , ६-वाँ भाग , ७-वाँ भाग , ८-वाँ भाग , ९-वाँ भाग, १०-वाँ भाग , ११-वाँ भाग , १२-वाँ भाग, १३-वाँ भाग के सिलसिले मा हाजिर हय आज ई १४-वाँ भाग :
पाहीमाफी कय ई भाग गांव कय ऊ सच कहय कय कोसिस करत है जेहिका बहुत कम कहा गा अहै. यक दलित समाज कय नयी-नबेली बहू कइसे घरे औतय खन काम के चक्की मा पीसि दीन जात है, ई हियाँ देखा जाय सकत है. कइसे औरतय आपस मा यक दूसरे से बतियात हयं ई बड़ी सहजता से हाजिर कीन गा अहै. बात-चीत केरि भंगिमा देखउ हियाँ तनिका:
बहिनी ! खजुवात मूड़ बाटै
सगरौ, घर काम परा बाटै
दइ द्या साबुन यक दाईं भै
बरवा लासियान जट्ट बाटै
नवा नवा बियाह भा हुवै अउ मरद मेहराऊ दूनउ क जीवन-उत्सव से काटि के कामे मा खटावा जाय, ई जिंदगी के साथ पाप आय. गांवन मा ई पाप खूब देखाये! ठकुराना केतनी हनक के साथे, अउ केतनी निर्लज्जता से, यहि पाप-वृत्ति पै उतारू है :
कहि द्या बनठन भूले से भी
ठकुरहना वोरी ना आवै
जेकरे बल पोखना लाग बाय
वोका नाधब हरवाही मा
दुनिया भर के काम के जंजाल मा जिंदगी काटी जाय अउ जियय कै मौकै न मिलै तौ भरी जवानी भार लागै लागत है. केतना बेलाग यथार्थ कहा गा बाय :
हम बोझ सम्हारी कि अँचरा
जिउ धुकुर-पुकुर धुक बोलअ थै
दुई बोझ कुदरती छाती पै
सब बोझन से भारी मोकां
तौ गुजरा जाय पाहिमाफी के यहि चउदहें भाग से. : संपादक
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- तिरिया-गाथा (1)
दुइ जगह से उबहन टूट रहै
पानी ना यक्कौ घूँट रहै
करिहाँव मा दाबे बात करैं
नीचे से गगरा फूट रहै
‘सीधा-पिसान कुच्छौ ना बा
कलिहैं से चूल्हा बुता बाय
अब काव कही बहिनी तुहुँसे
किस्मतियै ही जब फुटा बाय
कोदौ-सावाँ जउनै मिलितै
दइ देत्यु तनी उधारी मा’
यकतनहा नीम कै पेड़ गवाह
बचा बा पाहीमाफी मा
बहिनी ! खजुवात मूड़ बाटै
सगरौ, घर काम परा बाटै
दइ द्या साबुन यक दाईं भै
बरवा लासियान जट्ट बाटै
आवा ढीलौ तनि हेर दियौ
औ लीख सुरुक चुट्काय दियौ
धीरे-धीरे मँगियाय बार
नीबी कय तेल लगाय दियौ
तिल कै पाती ना काम करै
गज्झा ना चिकनी माटी मा
यकतनहा नीम कै पेड़ गवाह
बचा बा ‘पाहीमाफी’ मा
उठा पतोहा साँस लिया तू
कंड़िया छोडि कै जांत लिया तू
जात हई हम करै मजूरी
सतुआ-ककई फांक लिया तू
घर-भीतर-बाहर काम किहेन
मरदेन कै घुसा-लात सहेन
चुरिया कै धोवन बदा रहा
हम बड़े भाग तुहुंका परछेन
करछुल आछत का हाथ जरै ?
बुढ़िया होइ गयन जवानी मा
यकतनहा नीम कै पेड़ गवाह
बचा बा ‘पाहीमाफी’ मा
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परदेसी आये राती मा
मुंह लाल-ललछहूँ लाजी मा
माँगी मा सेंनुर मुस्कियाय
मरकहवा काजर आँखी मा
सोने कै बाली चम-चम-चम
नाकी मा कील तकै तक-तक
झुलनी झमकउवा ओंठे पै
हीलै-डोलै लक-झक लक-झक
ठकुराइन बोलिन ‘का रे, तू !’
पहिचानेन नाहीं मो तोहकां
यकतनहा नीम कै पेड़ गवाह
बचा बा ‘पाहीमाफी’ मा
ठाकुर ठकुराइन का ताकैं
चानी न सोहै नाक-कान
कुछ गुनैं-धुनैं कोयर बालैं
उंगुरी कटि गै जब उड़ा ध्यान
बोले, मन बक्कै आँवं-बाँवं
अलही-बलही फगुवा गावै
कहि द्या बनठन भूले से भी
ठकुरहना वोरी ना आवै
जेकरे बल पोखना लाग बाय
वोका नाधब हरवाही मा
यकतनहा नीम कै पेड़ गवाह
बचा बा ‘पाहीमाफी’ मा
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रहि-रहि कै हिचकी आवत बा
छपरा पै कौवा बोलत बा
माई मोहान होइहैं साइद
लागत बा केऊ आवत बा
सौंकेरे से हम छोलिअ थै
तनिकौ मन नाहीं लागत बा
घसिया छक्कान बाय तब्बौ
हमसे नाहीं सँगिरात बाय
अम्मा ! हम घर कां जात हई
केऊ गोहरावत बा हमकां
यकतनहा नीम कै पेड़ गवाह
बचा बा पाहीमाफी मा
भइया ! तू आया अनवइया
चौवा-चांगर दुइ ठू गइया
जाई सब कइसै छोड़-छाड़
आन्हर बाटीं सासू मइया
घर कै जंजाल बाय माथे
‘बिचउलिया’ दगा किहिन साथे
बस यक्कै चीज नीक बाटै
बहनोई तुहार पढ़त बाटे
वै कहत हये कि सबर करा
सब दिन ना कटी गरीबी मा
यकतनहा नीम कै पेड़ गवाह
बचा बा पाहीमाफी मा
भइया ! तू हमसे छोट हया
दुःख आपन तुहुँसे काव कही
बस फटही लुगरी इहै बाय
कउनौ खानी तन ढके हई
सावाँ-काकुन हम कूटिअ थै
जांता मा गोजई पीसिअ थै
सब खाय लियैं तब खाइअ थै
परथन कै टिकरी पाइअ थै
गवने कै मेंहदी छूट नाहिं
वै नाधि दिहिन मजदूरी मा
यकतनहा नीम कै पेड़ गवाह
बचा बा पाहीमाफी मा
हँसि कै बोलिन वनकै दुलहिन
रोवा जिन तू बनिकै विरहिन
ई कवन पंवारा नाधे हौ
हमसे तौ नीक हयू सब दिन
‘आन्हर सासु, ससुर भी अन्हरा
येक जने वोऊ चकचोन्हरा
पइदा भये न यक्कौ लरिके
घूमिअ थै दइ आँखी कजरा
जा गोड़ धोय द्या भइया कै
पानी भरि लावा थारी मा’
यकतनहा नीम कै पेड़ गवाह
बचा बा पाहीमाफी मा
भइया ! अबहीं ना जाव आज
दुइ दिन तू आउर रुक जात्या
बा धरा बाध-पावा-पाटी
यक खटिया सालि बीन जात्या
कटिया-पिटिया मा रहेन लाग
लेकिन बिहान नाहीं टारब
उठि बड़े भिन्नहीं नारा मा
टापा लइकै मछरी मारब
तू हीक भै अच्छे खाय लिहा
धइ देबै थोरै झोरा मा
यकतनहा नीम कै पेड़ गवाह
बचा बा पाहीमाफी मा
******
सुन्नर नीक पतोहिया तोरी
देखतै थूकै हमरी वोरी
सुनै न ना तौ करै बेगारी
दइ पइबा ना कबहुं उधारी
बोलिस आँख देखाया नाहीं
केहू क् दिया हम खाइत नाहीं
जानै ऊ जे करजा खाइस
घर बिकान घरवाली नाहीं
जउने गाँव कै छोरी होई
जनत्या नाहीं तू हमकां
यकतनहा नीम कै पेड़ गवाह
बचा बा ‘पाहीमाफी’ मा
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घूंघुट निकारि गोहूँ ढोई
रोई आपन दीदा खोई
अकड़ी गटई घरुहान रहै
बेसरम नजर ताकै मोही
‘घौलरा’ कां नाहीं काम-धाम
राही मा बइठ अगोरअ थै
हम बोझ सम्हारी कि अँचरा
जिउ धुकुर-पुकुर धुक बोलअ थै
दुई बोझ कुदरती छाती पै
सब बोझन से भारी मोकां
यकतनहा कै पेड़ गवाह
बचा बा ‘पाहीमाफी’ मा
ऊ पटक बोझ फरवारे मा
बाँहें रसरी करियाहें मा
हिम्मत जुहाय रून्हें गटई
मुंह ढांपे बोलिस सन्हें मा
ना भलमनई ना बड़मनई
तुहरे जाती रस्ता दूभर
होइकै अकच्च मुंह खोलि दियब
इज्ज़त-पानी छीछालेदर
तुहर्’यौ घर माटी कै चूल्हा
घर घुसरि क् देखा भितरी मा
यकतनहा नीम कै पेड़ गवाह
बचा बा पाहीमाफी मा.
[जारी….]