कतिपय अवधियों का भोजपुरी-द्वेष

[यक पोस्ट फेसबुक पै डारे रहेन। पोस्ट तनिका लंबी रही, चाहेन कि यहिका हियौं रखि दी, तौ मा रखत अही। हम ऊ बात लोगन से साझा किहे अही जौन हम पिछले कुछ सालन से महसूस किहेन हय। यहिमा हम सबका जनरलाइज नाहीं करत अही मुदा कुछ दिक्कत तौ हय जेहिपर अवधियन क सोचेक अहय। पोस्ट के साथे सम्माननीय सौरभ पाण्डेय जी कय टीपौ इमेज के रूप मा हियां हाजिर हय। उम्मीद अहय कि यहि दिसा मा सोच-बिचार कीन जाये। : संपादक]

कतिपय अवधियों का भोजपुरी-द्वेष

यह बात अफसोस के साथ कह रहा हूँ कि अवधियों में भोजपुरी को लेकर एक तंग नजरिया काफी पहले से दिखता है, जो दुर्भाग्यवश अभी भी जारी है। यह एक नकारात्मकता है जिसे खत्म होना चाहिए। इससे अवधी के भी स्वास्थ्य को खतरा है।

भोजपुरी की ‘अगंभीर छवि’ कब बनी, कैसे बनी, यह शोध का विषय हो सकता है। लेकिन यह छवि बहुत पहले से है जो ढेरों अवधियों में संस्कार की तरह रच-बस गयी है। इस अगंभीर छवि से ग्रस्त भोजपुरिये भी हैं।

अवधी के एक कवि हैं वंशीधर शुक्ल। प्रगतिशील कवि हैं। वे कई बार कविता में उन छवियों या निर्मितियों के प्रति सतर्क रहे हैं जो नकारात्मक हैं। यह एक कवि का काम भी है। लेकिन वंशीधर जी भोजपुरी की इस अगंभीर छवि को लेकर यथास्थितिवादी हैं। वे यहाँ जागरूक नहीं हैं जबकि उन्हें होना चाहिए। वे भोजपुरी के साथ ‘उदमादी’ (यानी उन्मादी) विशेषण का इस्तेमाल करते हैं। ऐसी भाषा जिसमें उन्माद है। संजीदगी नहीं है। कहते हैं, ‘ब्रजभाषा सबकी मुँहचुमनी, भोजपुरी उदमादी’।

यों भी भोजपुरी को ‘ऐली-गैली’ वाली भाषा कह कर अवध और दूसरे इलाकों में भी इसे एक क्षुद्र निगाह से देखा जाता है। खड़ी बोली के मानकीकरण की हनक चढ़ी तो कई लोगों ने इस ‘ऐली-गैली’ की सीमा में अवधी को भी समेट लिया। यानी देहाती भाषा बनाम खड़ी बोली-हिन्दी जैसा समझें। इसी कड़ी में, ऐसे ही संस्कार-प्रभाव में, हिन्दी बनाम अंग्रेजी जुड़ जाय तो क्या आश्चर्य!

शुरुआत में कुछ अवधी सम्मेलनों में गया जहाँ मुझे दो बिन्दु स्पष्ट दिखे : (१) बाबा तुलसी का अतिशय श्रद्धापूर्ण गुणगान (२) भोजपुरी निन्दा अभियान। निन्दा के क्रम में कहा जाता कि भोजपुरी ‘अश्लील भाषा’ है। मैंने इसका सदैव विरोध किया। परिणाम यह हुआ कि फिर कहीं बुलाने लायक मुझे नहीं समझा गया। मजे की बात यह कि भोजपुरी को अश्लील साबित करने के लिए जब निरहुआ आदि गायकों का नाम लिया जाता तभी यह सचेत रूप से भुला दिया जाता कि इसी समय इसी भाषा में कहीं ज्यादा बड़े गायक शारदा सिन्हा, भरत व्यास आदि हैं।

वर्तमान में आठवीं अनुसूची के लिए भोजपुरी का विरोध अवधियों के इसी परंपरागत ‘द्वेष-भाव’ का विस्तार है। अवधिये खुद तो अपनी भाषा की जड़ों से कटे हुए हैं और संख्या-बल व भाखा-प्रेम के आधार पर भोजपुरिये आज आठवीं अनुसूची के दावेदार हो गये हैं तो अब इनका यह ‘द्वेष-भाव’ औंधे मुँह गिर पड़ा है। हर हिकमत लगा रहे हैं ‘ऐली-गैली’ वाली भाषा को आगे न बढ़ने देने के लिए। ‘हिन्दी बचाओ’ के बहाने।

इन अवधियों ने तब क्यों हिन्दी बचाओ का डंका नहीं पीटा जब मैथिली आठवीं अनुसूची में जा रही थी। क्योंकि मैथिली के प्रति वैसा ‘द्वेष-भाव’ नहीं रहा इनमें जैस भोजपुरी के प्रति है।

मैं अवधियों के इस द्वेष-भाव का विरोध करता हूँ। करता रहा हूँ। इसके लिए अवधी मठाधीसों की सांकेतिक समझाइस भी आती रही कि मैं ज्यादा उछलूँ नहीं। पर मैं भी आदत से मजबूर हूँ, क्या करूँ। आपके साहित्तिक-होटल में दो-चार दिन का मुफ्तिया ठहराव व अन्यान्न लाभ हेतु आपकी हां में हां मिलाने वाली जमात में दाखिला लेना मुझे कबूल नहीं। नहीं कबूल मुझे साहित्य और भाषा के सवाल को लूडो और शतरंज की तरह देखना।
—-
मेरी बातों से इससे अलग सोच के किसी अवधी प्रेमी या अवधिये का दिल दुखा है तो माफी चाहता हूँ।
—-
अंत में सौरभ जी का मत :
Screenshot - 8_24_2017 , 11_09_08 PM

Leave a Reply

Your email address will not be published.