पता नहीं कैसे लिखने वाला स्विच फिर से ऑन हो गया : डॉ. प्रदीप शुक्ल

ई पोस्ट हम यहि मकसद से रखित अहन कि ई पता चलय कि यक रचैया कैसे अपनी मातरी भासा से आपन रचनात्मक रिस्ता बनावत हय। केतना उतार-चढ़ाव आवत हय। दुसरी आपाधापी मा ऊ भाखा-माहौल बिसरि जात हय। फिर जब कौनौ गुंजाइस बनत हय तौ फिर रचनात्मक हरेरी आइ जात हय। दुसरी बात कि ई सनद हमयँ यक दस्तावेजी रूप मा देखाइ परी। डाकटर साहब यहिका हियाँ राखय कय इजाजत दिहिन, यहिते आभार! : संपादक
________________________________________________________

15826841_1403348216350625_8253738952808645756_n

अवधी हमारि – अवधी हमारि
हमका सबते जादा पियारि
लारिकईयाँ मा वह दुलराइसि
अब कईसे देई हम बिसारि

अवधी मेरी मातृभाषा है पर अवधी को अभी भाषा का दर्जा नहीं मिल सका है. अब अगर अवधी को हिंदी की बोली कहें तो हिंदी मेरी मातृभाषा हुई. भाषा – बोली के झंझट में न पड़ते हुए मैं ईमानदारी से यह कह सकता हूँ कि खड़ी बोली हिंदी में लिखने के लिए मुझे अक्सर अपनी अवधी की पुरानी गठरी खोल कर शब्दों के भावार्थ तलाशने पड़ते हैं.

मेरे जीवन में अवधी साहित्य या यों कहें कि साहित्य की शुरुआत अम्मा, बुआ की गौनई के बाद तुलसी बाबा की रामचरित मानस से ही हुई होगी, ऐसा मेरा अनुमान है. मैं जब 8 बरस का था और तीसरी क्लास में पढता था, मुझे पूरा सुन्दर काण्ड कंठस्थ था. कुछ सालों तक यह उपलब्धि मेरे परिचय का हिस्सा भी रही. बाद के वर्षों में काफी समय तक अपने गांव में ही नहीं अपितु आस पास के गांवों में भी अखंड रामायण ( रामचरित मानस ) के पाठ करने वाली टीम का मैं एक अभिन्न सदस्य हुआ करता था.

हालाँकि मैं 16 बरस की उम्र में गांव से लखनऊ आ गया था पढने के लिए पर यहाँ भी अवधी मेरी सामान्य बोल चाल की भाषा कई बरसों तक बनी रही. कारण था मेरे गांव का शहर के बहुत पास होना. हर शनिवार की शाम साईकिल से गांव आ जाते और सोमवार की सुबह फ़िर लखनऊ. पर धीरे धीरे अवधी बोलचाल की भाषा के रूप में साथ न दे सकी. शहर में अवधी गंवारों की भाषा समझी जाती है. इस पर एक किस्सा याद आता है.

मैं उन दिनों बी एस सी कर रहा था कान्यकुब्ज कॉलेज से. हमारी मित्र मंडली में एक दीक्षित नाम का लड़का हुआ करता था, उसका मूल नाम भूल रहा हूँ. केमिस्ट्री की लैब में कोई सल्यूशन दीक्षित से कॉपी पर गिर गया था. तभी वहाँ विभागाध्यक्ष प्रकट हो गए. देखते ही दीक्षित के मुँह से निकला, ” सर, ढरक गवा रहै ” फिर तो सर ने जो उसकी क्लास लगाईं कि वह आँसुओं से रो दिया. जाहिल, गंवार, बेवकूफ आदि अनेकानेक उपाधियों से नवाजा गया उसे. अब पूरा क्लास दीक्षित को ‘ ढरक गवा ‘ के नाम से बुलाने लग गया. कुछ दिनों बाद उसने कॉलेज आना ही बंद कर दिया.

गीत मुझे बचपन से ही आकर्षित करते रहे हैं. अपनी कक्षा में पाठ्यपुस्तक से कविता याद कर सबसे पहले सुनाने वाला विद्यार्थी निर्विवाद रूप से मैं ही होता था. इसका श्रेय जाता है मेरे नाना जी को. मेरे नाना जी पं सीताराम त्रिपाठी संस्कृत के विद्वान्, श्रीमद् भागवद्गीता के मर्मग्य और अवधी के कवि थे. मेरे जन्म लेने से पहले ही वह इस संसार से चले गए. मैं अपने भाईयों बहनों में अपने आपको सबसे भाग्यशाली मानता हूँ कि उनके डीएनए में लिखी हुई कविता मेरे हिस्से आई.

पं सीताराम त्रिपाठी ने ‘ महाभारत ‘ को अवधी छंदों में लिखा था. उनके दो या तीन खंड ही प्रकाशित हो पाए थे. उसी दौरान उनके बड़े बेटे का देहांत हो जाने के कारण मेरी नानी ने आगे का प्रकाशन रुकवा दिया था. उस हादसे के बाद इस महाकाव्य की चर्चा पर ही प्रतिबन्ध हो गया था मेरे ननिहाल में. बहुत बाद में गठरी में बंधी हुई पांडुलिपियाँ मैंने भी देखीं थीं. अब मेरे पास उनकी कोई भी किताब या पांडुलिपि नहीं है. मैंने बचपन में पिता जी से उनके अनेकों छंद सुने हैं. पिताजी जब भी कभी खाली होते और मौज में होते तो नाना जी के, और बहुत सारे कवियों के छंदों का सस्वर पाठ करते. रामचरित मानस के तो वह विशेषग्य ही हैं. आज भी मानस प्रवचन उनकी दिनचर्या का हिस्सा है.

जीवन में पहली बार की तुकबंदी मुझे अभी भी याद हैं. याद इसलिए है कि फिर अगले तीस – पैंतीस सालों तक और कुछ लिखा ही नहीं. मैं उस समय कक्षा 7 का विद्यार्थी था. बंथरा में मेरे स्कूल से लगा हुआ एक मात्र इंटर कॉलेज ( लाला राम स्वरुप शिक्षा संस्थान इंटर कॉलेज, बंथरा, लखनऊ ) हुआ करता था. हम लोग उसे लाला वाला स्कूल कहते थे. पढ़ाई न होने के लिए कुख्यात इस कॉलेज में एक नए प्रिंसिपल का आगमन हुआ था उन दिनों. पंक्तियाँ देखें –

“लाला स्कूल तो बना है अब धरमसाला
लरिका तौ घुमतै पर मास्टरौ कुर्सी फारति हैं
पान के बीड़ा धरे मुँह मा चबाय रहे
अउरु बईठ होटल मा चाय उड़ावति हैं
आवा है अब यहु नवा नवा प्रिंसपलु
जहिके मारे उई अब बईठे नहीं पावति हैं
खुद तो न पढ़ि पावैं अँगरेजी क्यार पेपरु
जानै अब लरिकन का उई का पढ़ावति हैं.”

ये पंक्तियाँ मैंने 13 वर्ष की उम्र में लिखीं थीं फिर लिखने वाला स्विच ऑफ हो गया. अगले कई दशकों तक लिखने का ख्याल ही दिमाग में नहीं आया. हाँ कविता पढने और सुनने का मौक़ा कभी नहीं छोड़ता था. पिताजी की किताबों में एक मात्र कविता की पुस्तक जो मुझे याद है, रमई काका की ‘ बौछार ‘ थी. उसकी बहुत सारी कवितायेँ मुझे याद थीं और गाहे बगाहे उन्हें सुना कर वाह वाही लूटता था. अभी इधर 2013 के आखिरी महीनों में पता नहीं कैसे लिखने वाला स्विच फिर से ऑन हो गया है और फिर से तुकबंदियों का सिलसिला शुरू हो गया.
__डॉ. प्रदीप शुक्ल 

सम्पर्क:
गंगा चिल्ड्रेन्स हॉस्पिटल
N. H. – 1, सेक्टर – डी, LDA कॉलोनी, कानपुर रोड, लखनऊ – 226012
मोबाइल – 09415029713
E – Mail – drpradeepkshukla@gmail.com

Leave a Reply

Your email address will not be published.