अवधी कवि सम्मेलन की रपट (29/1/2017)
विगत रविवार (29-1-2017) को दिल्ली के क्नॊट प्लेस इलाके में अवधी प्रेमियों ने एक कवि सम्मेलन का आयोजन किया। कवि सम्मेलन ‘दिल्ली परिछेत्र अवधी समाज’ की तरफ से आयिजित किया गया था। सहयोग किया था, दलित लेखक संघ, दिल्ली ने। इस गोष्ठी के बहाने दिल्ली व इस परिछेत्र में सक्रिय अवधी रचनाकारों की रचनात्मकता का बखूबी परिचय मिला। यह पता चला कि अवधी कवि और कविता का अपने वर्तमान से, वर्तमान के राजनीतिक घटनाक्रमों से कितना नजदीकी जुड़ाव है। अवधी के इन कवियों ने, जिसमें युवा कवियों की भी अच्छी भागीदारी थी, अवधी कविता से श्रोताओं दिल जीत लिया।
अवधी काव्य गोष्ठी की शुरुआत में ही अवधी के युवा कवि राघव देवेश ने अपनी कविता से गंभीर समाज में नफरत फैलाने वाले तत्वों की हकीकत खोलते हुए कहा, “मजहब के नाम पै रोज मिलैं साम के / न यै रहीम के, न तौ यै राम के / यै सब बिना काम के।” व्यंग्यकार संतोष त्रिवेदी ने पहले और आज के समय में क्या परिवर्तन आया, क्या गायब हुआ, इसे अपनी कविता में रखा, “बाबा कै बकुली औ धोती, अजिया केरि उघन्नी गायब / लरिकन केर करगदा कंठा, बिटियन कै बिछिया भै गायब।” अपने खांटी मिजाज की कविताएँ करने वाले कवि अमित आनंद ने जिंदगी को नये उपमानों और गँवई क्रिया-व्यापारों में याद किया, “पातर के मेढ़ पर बिछलात बीत जिंदगी / पुरइन के पात अस सरमात बीत जिंदगी।” हिन्दी में मीडिया विश्लेषक के रूप में चर्चित कवि प्रांजल धर की काव्य-पंक्तियाँ इस तरह रहीं, “अम्मा कै लाड़ला बनौ औ सही सही कुछ काम करौ / नाम के झालर से दूर रहिके जननी जनमभूमि कय नाव करौ।”
कवयित्री मृदुला ने उस दशा को कविता में व्यक्त किया जिसमें गाँव छोड़ कर कई वर्षों के बाद जाने पर हमें दूसरा ही गाँव मिलता है, तस्वीर काफी बदली हुई मिलती है, “यहिका अँजोर कही याकि अँधियारु कही / केउ केहू से बोलै न केउ दुवारे डोलै न / साँझै से कुल जवार देखत बिग बॊस बा / का इहै ऊ गाँव आ का इहै ऊ देस आ?” कवि सम्मेलन का संचालन कर रहे अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी ने डॊ. प्रदीप शुक्ल की कविता सुनाई जिसमें नोटबंदी पर जनता की निगाह से सवाल किया गया, “बिटिया ब्याहै खातिर लल्लन अपनै पैसा न निकारि सकैं / दस दिन ते लैन म लागि-लागि अब देखौ उल्टा सीधु बकैं / जो बाहुबली हैं उनके तौ घर मा नोटन कै लागि तही / काका तुम ब्वालौ सही-सही!” उन्होंने अपनी भी कविता सुनाई जिसमें इन अराजकताओं से निकलने का आशावाद था, “माया छटे, भ्रम मिटे, मुला धैर्ज राखौ यहि बेरिया।”
पत्रकार अटल तिवारी ने पत्रकार कृष्ण कांत की कविता सुनाई जो शासन व्यवस्था पर तंज कस रही थी, “का हो लड्डन लड्डू खाबो, लाइन लगि कय सरगहि जाबो!’ विष्णु ‘वैश्विक’ की पंक्तियों ने लोगों से खूब तालियाँ बजवायीं। नोटबंदी की पोल उन्होंने अपने ढंग से खोली, “नोटबंदी कै किहिन तमासा जनता का फुसिलावै का / जंग अउर माल्या वाला मामलवौ तौ रहा दबावै का।”
अवधी में प्रगतिशील परंपरा के सशक्त हस्ताक्षर और अवधी गजलों से कविता के परिदृश्य को समृद्ध कर रहे आलोचक बजरंग बिहारी ‘बजरू’ ने सर्वप्रथम कवि प्रकाश गिरि की कविता पढ़ी, “साहेब नीक चलायेव डंडा / जनता है हलकान मुला तू झारेव देसभक्ति कै फंडा!” कवि बजरू ने फिर अपनी दो बेहतरीन गजलें सुनायीं। लोकलय की चाल चलती हुई पंक्तियाँ चित्त में बैठ गयीं जो अवधी काव्य की सघन राजनीतिक चेतना, जिसमें सधा आक्रोश भी हो, का परिचय दे रही थीं, “पापी निरहुवा सतावै नासकटवा / करिया कानुनवा लगावै नासकटवा।….खुद तौ उड़ै देस दुनिया मा टहरै / पब्लिक का दँवरी नधावै नासकटवा।”
अंत में अवधी के जाने माने कथाकार और कवि भारतेंदु मिश्र ने अपनी कविताएँ सुनाईं। अपने चुनिंदा दोहों से उन्होंने सभी का ध्यान गाँव की स्थितियों की ओर खींचा। उन्होंने अवधी में मुक्तछंद की कविता सुनाई, ‘कस परजवटि बिसारी!’ वर्तमान राजनीति को संबोधित उनकी कविता खासी सराही गयी, “चरखा काति रहे मलखान / रामलला की जयकारा ते बना न तिनकौ काम। / सैकिल पंचर हुइगै वहिपै बैठे दुइ नादान। / हैंडिल लयिके भागि लरिकवा बापू हैँ हैरान।” भारतेन्दु मिश्र के कविता पाठ के साथ ही कविता पाठ का यह सिलसिला खत्म हुआ। अध्यक्षता कर रहे साहित्यकार मामचंद रेवाड़िया जी ने अवधी कविताओं की सराहना की। आगे भी ऐसे आयोजन की जरूरत पर जोर दिया। सभी अवधी कविता प्रेमियों का धन्यवाद ज्ञापन किया गया।
[रपट : ‘दिल्ली परिछेत्र अवधी समाज’ की तरफ़ से]
बढ़िया हालु लिख्यो भईया, हम तो पहुँचि न पाएन मुलु कबिता हमारि पहुँचि गै. अमरेंदर भईया की जय.
Are bhaiya,bahut-bahut dhanywad……