अलाउद्दीन साबिर केर अवधी गजल : का हुइहै!

अलाउद्दीन साबिर साहब कय ई गजल यहि अवधी ठीहे पै आवय कय गजब कहानी हय। यक दाँय हिमांशु बाजपेयी हमयँ ई गजल सुनाये रहे। सुनायिन तौ हमयँ बहुत नीकि लाग। तब उनका गजल कय पाँचौ सेर याद रहा। हम कहेन लिखाय दियव। कहिन बाद मा। फिर वय बाद मा यक सेर भूलि गये। बाकी बचे चार। पिछले यक साल से उइ, ऊ भूला सेर याद करत अहयँ मुला यादि नाहीं कइ पाइन। हमयँ लाग कि लावो चारै सेर डारि दी; का पता, यक सेर याद करय का छोड़ौ, उइ बाकी चारिउ भूलि जायँ। फिर आज उनका हम धइ दबोचेन, फेसबुक पय। चारौ सेर उइ लिखिन जौन हियाँ दीन जात अहयँ। साबिर साहेब के बारे मा पूछेन तौ वै एतना बतायिन कि साबिर साहेब कानपुर के यक मिल मा मजूर रहे। साच्छर नाहीं रहे। लखनऊ केरी बिक्टोरिया इसट्रीट मा रहत रहे। बादि मा कुछ समय के ताईं बंबयिउ गा रहे। हिमांशु क ई गजल बिलायत जाफरी साहेब सुनाये रहे जे साबिर साहेब के साथे कौनौ प्रोजेक्ट मा काम किहे रहे। यनहूँ से पहिले ई गजल हिमांशु कआबिद हुसैन साहब सुनाये रहे जे साबिर साहेब कय दोस्त रहे। तौ हाजिर हय ई गजल! : संपादक
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का हुइहै! : अलाउद्दीन साबिर

ब्योपार करे जे मज़हब का ऊ साहिबे ईमां का हुइहै
सिख और इसाई का हुइहै, हिन्दू औ मुसलमां का हुइहै।

रहबर जो रहेैं इल्मी हुइगे शाइर जो रहैं  फिल्मी हुइगे
जो आम रहैं कलमी हुइगे अब बारिसे इरफां का हुइहै।

उइ लूटि लिहिन हमरी बगिया उइ खाइ लिहिन सगरी अमिया
बस तन प लंगोटी बाक़ी है, अब चाक गिरेबां का हुइहै।

बरबाद गुलिस्ता करिबे का बस ऐकै उल्लू काफी है
जहां डाल डाल पर उल्लू हैं अंजामे गुलिस्ता का हुइहै।

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