अवधी गद्य में अनंत शक्ति है : त्रिलोचन

बरवै छंद मा ‘अमोला’ लिखय वाले अवधी अउ हिन्दी कय तरक्कीपसंद कवि तिरलोचन से अवधी कथाकार भारतेन्दु मिसिर बतकही किसे रहे सन्‌ १९९१ मा, जवन १९९९ मा रास्ट्रीय सहारा अखबार के लखनऊ संस्करन मा छपी रही। बाद मा यहय बतकही तिरलोचन केरी ‘मेरे साक्षात्कार’ किताब मा छापी गय। मजेदार लाग कि यहि बतकही कय आधा हिस्सा अवध अउ अवधी से ताल्लुक राखत हय। ई हिस्सा काहे न यहि बेबसाइट पय आवय; इहय सोचिके यहिका हियाँ हाजिर कीन जात अहय। छापय कय अनुमति मिसिर जी दिहिन, यहिते आभारी हन्‌। : संपादक
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वर्तमान हिन्दी कविता पर महानगरीय बोध या कोरी आंचलिकता का प्रभाव है परन्तु आपकी कविताएं अवधी चरित्र से अधिक जुड़ी है इसका मूल कारण क्या है ?
  
नगर में रहने वालों का व्यावहारिकimg_20161111_174813 ज्ञान का स्तर कम होता है क्योंकि गांव वालों का व्यावहारिक प्रत्यक्षीकरण करने का उन्हें सुयोग ही नहीं मिलता। मिलना-जुलना भी बहुत कम होता है। महानगरीय जीवन में फूल-पौधे वन आदि दुर्लभ होते हैं। ये सब गांवों में सुलभ हैं। गांव का बालक किताब पढ़ने में भले ही कमजोर हो वनस्पति ज्ञान में नगर के बालक से आज भी असाधारण है। वह वनस्पति, पशु और मनुष्य के नाना रूपो में चेतना के विकास के साथ-साथ जिसकी चेतना का विकास होता है। रचनाकार होने पर वह जीवों के पारस्परिक सम्बन्धों को भी अच्छी तरह रख सकता हैं। हमारे प्राचीनतम महाकवि न नगर निंदक थे न ग्राम निंदक और न अरण्य जीवन के; इसी कारण वे पूर्ण कवि थे। जीव और जीवन के निकट होने पर ही कोई कवि हो सकता है। मेरी चेतना का विकास या निर्माण अवध के परिवेश में हुआ, यदि अवध को मेरा पाठक मेरी रचना से पहचानता है तो मेरा रचना कार्य सफल ही कहा जाना चाहिए।

भौजी’, ‘उस जनपत का कवि हूं, झापस, नगई महरा तथा चैती मेंकातिकपयान जैसी कविताएं आपकी मौलिकता को रेखांकित करती हैं, आपको इन चरित्रों ने किस प्रकार प्रभावित किया?

मेरी रचनाओं में जो व्यक्ति आए हैं वे इसी भूतल पर मुझे मिले, उनमें से आज कुछ हैं कुछ नहीं हैं। लोग चाहें तो कह सकते हैं कि मेरी अनुभूतियां अवध को नहीं लांघ पातीं लेकिन मैं भारत में जहां कहीं गया हूँ वहां के भाव भी वहां के जीवन के साथ ही मेरी कविताओं में आए हैं। मेरे यहां अवध के शब्द मिलते हैं लेकिन अन्य राज्यों के अनिवार्य शब्दों का आभाव नहीं है। मैं आज भी गांव की नीची जाति के लोगों के साथ बैठकर बात करता हूं। अवध के गांवों को तो मैं विश्वविद्यालय मानता हूं। ‘नगई महरा’ से बहुत कुछ मैंनें सीखा, वह कहार था- गांजा पीता था पर उसे बहुत से कवियों के कवित्त याद थे। सांईदाता सम्प्रदाय तथा बानादास की कविताएं भी उससे सुनी थीं। उसी के कहने से मैं सांईदाता सम्प्रदाय को जान पाया। नगई उस सम्प्रदाय से भी जुड़ा था। उस पर अभी एक खण्ड और है जो लिखना है। अवध में गांव के निरक्षर में भी सैंकड़ों पढ़े-लिखों से अधिक मानवता है। गांवों में शत्रुता या मित्रता का निर्वाह है, यहां ऊपर की मंजिल वाले नीचे की मंजिल वालों को नहीं जानते।

बंसीधर शुक्ल, गुरुभक्त सिंह मृगेश पढ़ीस, रमई काका, चतुर्भुज शर्मा, विश्वनाथ पाठक, दिवाकर आदि के बाद अवधी लेखक में किस प्रकार के परिवर्तन की आवश्यकता है ?

अवधी में पढ़ीस, रमई काका, बंशीधर शुक्ल, चतुर्भुज, विश्वनाथ पाठक आदि उस कोटि के आदरणीय कवि हैं जैसे छायावाद के हैं। निराला ने प्रभावती उपन्यास में तीन पद अवधी में लिखे हैं, एक भोजपुरी पद भी सांध्य काकली में लिखा है। मानसिकता का अंतर मिलता है। गांव में पुस्तकालय हो तो गांव साक्षर हो। मानसिकता, शिक्षा व उनके व्यवहार आदि में विकास हो। मैं समझता हूं कि चेतना के कुछ ऋण होतें हैं उन्हें उतारना चाहिए। मैंने अपने गांव के केवटों को अवधी कविताएं सुनाई, उन कविताओं को सुनकर एक संतवृत्ति के बूढ़े केवट ने कहा ‘यह सब तो क्षणिक हैं।’ दूसरी बार वहां के चरित्रों को लिखा तो उसने पसंद किया। जिसे आज लिखा जा रहा है उसे समझने वाले लोग भी होने चाहिए। गांवों में सदाचार को प्रतिष्ठित करने का काम अवधी से किया जा सकता है। यदि रीतिकालीन कविता पर भक्तों व संतों की कविता का प्रभाव न जमा रहा होता तो गांवों में अशालीनता बढ़ गयी होती अत: सदाचार की प्रतिष्ठा संत कवियों ने ही की। अवधी में इस प्रकार का कार्य अभी भी किया जा सकता है।

अवधी की बोलियों में एकरूपता कैसे बनाई जा सकती है, आपकी दृष्टि में बिरवा की क्या भूमिका हो सकती है?

मेरा कहना है कि जो जिस अंचल का है उसी रूप में उसका लेखन हो। यदि मैं सीखकर लिखूं तो सीतापुर की बोली में भी लिखूंगा पर जो वहां का निवासी कवि है वह अधिक श्रेष्ठ लिखेगा, अत: मेरी दृष्टि में इन्हें एकरूपता देने की अवश्यक्ता नहीं है। वंशीधर जी ने  अवधी में गद्य लिखा है वह मिले तोउसे ‘बिरवा’ में प्रकाशित करना चाहिए। भाषा सपाट नहीं होती रचनाकार की दृष्टि सपाट होती है। अत: कहीं की बोली को स्टैण्डर्ड मानने के बाद वहां की संस्कृति भी सटैण्डर्ड हो जाएगी। इसलिए किसी भी क्षेत्र को स्टैण्डर्ड मत बनाइए। संक्रमण क्षेत्रों की भाषा को भी मानिए। उसका मानवीकरण (Highly Local) हो। तब कोष बने। अवधी के गद्य  में अनन्त शक्ति है, वह शक्ति हिन्दी खड़ी बोली में भी नहीं है। उसमें विभक्तियां हैं। ‘बिरवा’ यदि मानक कोष का स्वरूप तय करना चाहे तो उसके लिए मैं टीम को प्रशिक्षण दे सकता हूं। 

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