बजरंग बिहारी ‘बजरू’ केर गजल (२) : उठाए बीज कै गठरी सवाल बोइत है!
कवि बजरू के्र गजलन की पहिली कड़ी के बाद ई दूसरि कड़ी आय। पहिली कड़ी ‘हियाँ’ देखयँ। अब सीधे गजलन से रूबरू हुवा जाय। : संपादक
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[१]

का बेसाह्यो कस रहा मेला
राह सूनी निकरि गा रेला।
बरफ पिघली पोर तक पानी
मजा–खैंहस संग– संग झेला।
के उठाए साल भर खर्चा
जेबि टोवैं पास ना धेला।
गे नगरची औ मुकुटधारी
मंच खाली पूर भा खेला।
बहुत सोयौ राति भर ‘बजरू‘
अब न लपक्यो भोर की बेला।
[२]
जियै कै ढंग सीखब बोलिगे काका
भोरहरे तीर जमुना डोलिगे काका।
आँखि अंगार कूटैं धान काकी,
पुरनका घाव फिर से छोलिगे काका।
झरैया हल्ल होइगे मंत्र फूंकत
जहर अस गांव भीतर घोलिगे काका।
निहारैं खेत बीदुर काढ़ि घुरहू,
हंकारिन पसु पगहवा खोलिगे काका।
बिराजैं ऊँच सिंघासन श्री श्री
नफा नकसान आपन तोलिगे काका।
भतीजा हौ तौ पहुंचौ घाट ‘बजरू‘
महातम कमलदल कै झोरिगे काका।
[३]
उठाए बीज कै गठरी सवाल बोइत है
दबाए फूल कै मोटरी बवाल पोइत है।
इन्हैं मार्यौ उन्हैं काट्यौ तबौं न प्यास बुझी
रकत डरि कै कहां छिपिगा नसै नसि टोइत है।
जुआठा कांधे पर धारे जबां पर कीर्ति–कथा
सभे जानै कि हम जागी असल मा सोइत है ।
कहूं खोदी कहूं तोपी सिवान चालि उठा
महाजन देखि कै सोची मजूरी खोइत है।
ई घटाटोप अन्हेंरिया उजाड़ रेह भरी
अहेरी भक्त दरोरैं यही से रोइत है।
[४]
देस–दाना भवा दूभर राष्ट्र–भूसी अस उड़ी
कागजी फूलन कै अबकी साल किस्मत भै खड़ी।
मिली चटनी बिना रोटी पेट खाली मुंह भरा
घुप अमावस लाइ रोपिन तब जलावैं फुलझड़ी।
नरदहा दावा करै खुसबू कै हम वारिस हियां
खोइ हिम्मत सिर हिलावैं अकिल पर चादर पड़ी।
कोट काला बिन मसाला भये लाला हुमुकि गे।
बीर अभिमन्यू कराहै धूर्तता अब नग जड़ी।
मिलैं ‘बजरू’ तौ बतावैं रास्ता के रूंधि गा
मृगसिरा मिरगी औ’ साखामृग कै अनदेखी कड़ी।
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नमस्ते सर
अभी हाल ही में मेरा एक उपन्यास आया है जिसकी संवाद भाषा अवधी है। आपसे आग्रह है प्लीज इसे अवधी भाषी लोगों तक पहुुंचाने में मदद करें।
हुस्न तबस्सुम निंहां
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