‘तुम हे साजन!’__पढ़ीस

padhis कवि बलभद्र प्रसाद दीक्षित ‘पढ़ीस’ आधुनिक अवधी कवियन मा सबले जेठ कहा जइहैं। पढ़ीस जी कै जनम १८९८ ई. मा भा रहा। गाँव – अम्बरपुर। जिला – सीतापुर/अवध। खड़ी बोली हिन्दी , अंग्रेजी अउर उर्दू कै ग्यान हुवै के बादौ पढ़ीस जी कविताई अपनी मादरी जुबान मा यानी अवधी मा किहिन। १९३३ ई. मा पढ़ीस जी कै काव्य संग्रह ‘चकल्लस’ प्रकासित भा, जेहिकै भूमिका निराला जी लिखिन औ’ साफ तौर पै कहिन कि यू संग्रह हिन्दी के तमाम सफल काव्यन से बढ़िके है। पढ़ीस जी कै ग्रंथावली उ.प्र. हिन्दी संस्थान से आय चुकी है। पढ़ीस जी सन्‌ १९४२ मा दिवंगत भये। 

हियाँ पढ़ीस जी कै गीत प्रस्तुत कीन जात अहै, ‘तुम हे साजन!’ यहिमा निपट गाँव के माहौल मा नायिका कयिसे केहू से निरछल पियार कइ बैठति है अउ करति रहति है, देखा जाय सकत है। मुला नायक अपनी मासूका का भुलाइ बैठा है। यही कै टीस यहि गीत मा पिरोयी अहै। : संपादक
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 ‘तुम हे साजन!’__पढ़ीस

मँइ गुनहगार के आधार हौ तुम हे साजन!
निपटि गँवार के पियार हौ तुम हे साजन!

घास छीलति उयि चउमासन के ख्वादति खन,
तुम सगबगाइ क हमरी अलँग ताक्यउ साजन!

हायि हमहूँ तौ सिसियाइ के मुसक्याइ दिहेन,
बसि हँसाहुसी मोहब्बति मा बँधि गयन साजन!

आदि कइ-कइ कि सोचि सोचि क बिगरी बातै,
अपनिहे चूक करेजे मा है सालति साजन! 

तुम कहे रहेउ कि सुमिरेउ गाढ़े सकरे मा,
जापु तुमरै जपित है तुम कहाँ छिपेउ साजन! 

बइठि खरिहाने मा ताकिति है तउनें गल्ली,
जहाँ तुम लौटि के आवै क कहि गयौ साजन!

हन्नी उइ आई जुँधय्यउ अथयी छठिवाली,
टस ते मस तुम न भयउ कहाँ खपि गयौ साजन? 

कूचि कयि आगि करेजे मा हायि बिरहा की,
कैस कपूर की तिना ति उड़ि गयउ साजन!

याक झलकिउ जो कहूँ तुम दिखायि भरि देतिउ,
अपनी ओढ़नी मा तुमका फाँसि कै राखिति साजन!
__बलभद्र प्रसाद दीक्षित ‘पढ़ीस’

सबद-अरथ:  सगबगाइ – सकपकाब यानी संकोच करब / हन्नी – सप्तर्षि तारा मंडल कै समूह, हिरन / जुँधय्यउ – चंद्रमा / अथयी – डूबब, समाप्त हुअब या तिरोहित हुअब।

5 thoughts on “‘तुम हे साजन!’__पढ़ीस

  • January 23, 2013 at 11:34 pm
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    पढ़ीस जी अपना भासा में जवन रचना कइले बाड़न ऊ अइसे त शिल्प के अधार प ग़ज़ल के नियरा त नइखे, बलुक, द्विपदी जरूरे बा. आ भाव-भावना के का निकहा उजागर भइल बा ! वाह !!
    ई दूनो द्विपदी प त बुझाता जे सुगनी के करेजा काढ़ि के बहिरी निकसल आवत बा..
    कूचि कयि आगि करेजे मा हायि बिरहा की,
    कैस कपूर की तिना ति उड़ि गयउ साजन!

    याक झलकिउ जो कहूँ तुम दिखायि भरि देतिउ,
    अपनी ओढ़नी मा तुमका फाँसि कै राखिति साजन!

    रचना प्रस्तुति के एह सात्विक प्रयास खातिर हृदय से बधाई, अमरेन्द्र भाई.

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    • January 24, 2013 at 2:19 am
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      ‘गजल’ के बारे मा अबहीं हम क्लीयर नाहीं अहन्‌। यहिलिए फिलहाल ईडिट कै दियत अहन्‌, पक्का हुवै पै तब्दीली करब..। पधारै-सराहै-सुधारै खातिर सुक्रिया!

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  • February 8, 2013 at 6:04 pm
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    अमरेन्द्र भइया क ब्लॉग ‘अवधी के अरघान’ बहुतै नीक मचान है। हियाँ बैठि कै चौगिर्दा हरेरी देखाय परत है। हरहा-गोरु, सुआ-चिरैया, मेहनत-मजूरी, खेती-पाती सबै कुछु। यहि रचना कै केहि बिधि बड़ाई कीन जाय। हमरी समझ ते तो ग़ज़ल नहीं हुई सकत है, काहे ते कि ग़ज़ल मा जेतने शेर होति हैं, सब मुख्तलिफ ख्याल के होति हैं। मुला यहि पूरी रचना मा पिरेम क्यार गोलदारा है। रदीफ़ औरु काफिया जरुर हवैं, जउनु ग़ज़ल म जरूरी होति हैं। होइ सकति है कि नज़म हुवै।

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  • February 28, 2013 at 10:49 am
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    शिल्प गजल जैसन लागथै मुला गजल कय बंदिश पय खरी नय है… भाव और बिम्ब बहुत नीक लिए हएँ … बहुत बधाई

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