आचार्य विश्वनाथ कै लिखी ‘सर्वमंगला’ क्यार प्रथम सर्ग

आधुनिक अवधी कविता कै महान कवि विश्वनाथ पाठक कै जनम २४-जुलाई १९३१ क फैजाबाद जिला के पठखौली गाँव मा भा। इनकै पिता कै नाव श्री रामप्रताप पाठक है। पाठक जी अवधी, हिन्दी, संस्कृत, पालि, प्राकृत औ अपभ्रंस भासा कै विद्वान हैं। यहि साइत फैजाबाद सहर के मोदहा नाव कै मोहल्ला मा रहत अहैं। पिछली बार फैजाबाद गा रहेन तौ पाठक जी से मुलाकात किहे रहेन। पाठक जी कै ई फोटू ह्वईं खींचेन हैं। ‘सर्वमंगला’ पाठक जी कै लिखी अनोखी रचना है, जेहिपै लखनऊ औ अवध विस्वविद्यालय मा कयिउ सोधौ कीन गा है। यहि रचना कै दुइ सर्ग अवध विस्वविद्यालय के बी.ए.-तिसरे साल के सिलेबस मा रखा गवा हैं। यही ‘सर्वमंगला’ कै पहिला सर्ग हियाँ प्रस्तुत अहै। सर्वमंगला पुस्तक ‘भवदीय प्रकाशन, शृंगारहाट, अयोध्या-फैजाबाद’ से छपी है। : संपादक
__________________________________________________
आचार्य विश्वनाथ कृत प्रबंध काव्य ‘सर्वमंगला’
प्रथम सर्ग
छवि छिन छिन पै केहरि निहारि।
दृग माँ आँजन अस लेउँ डारि॥१॥
मैँ केकर लखि के चरन-मूल।
पूजा कै अरपित करउँ फूल॥२॥
केकर आँचर कै गहउँ छोर।
के जिउ कै हरै कलेस मोर॥३॥
चढ़ि केकरे कोरा माँ लुकाउँ।
केहि माई के परसे अघाउँ॥४॥
आपन सरबस दइ दिहिसि जौनि।
अस दयामयी ऊ होय कौनि?॥५॥
धइ कै कुलि दुनिया कै दुकानि।
कौने बदरन माँ बा लुकानि?॥६॥
ऊ जेके साथे खेलि-खेलि।
सब पै सनेह डारै उड़ेलि?॥७॥
केकर कोरा अस फइल बाय।
जेह माँ जड़-जंगम कुलि समाय?॥८॥
कुम्हिलानि गेदहरन का निहारि।
के फाटि परै सुधि-बुधि बिसारि?॥९॥
के अपनी छाती काँ निचोरि।
रातिउ दिन तिरखा हरै मोरि?॥१०॥
केकरे कलसा के परे बारि।
जिनगी कै अछनाबिछन डारि?॥११॥
केकरे चरनन कै धूरि जाय।
मैँ लेउँ पलकियन से उठाय?॥१२॥
अस असमंजस कै कवनि बाति।
परतच्छ भगैती बा लखाति॥१३॥
जब सोँहैँ गंगा भरी बाय।
तब के गड़ही हलिके नहाय॥१४॥
जेकरी मृदु लोरी से अघाय।
सम्मी दुनिया औँहाय जाय॥१५॥
धरती-अकास-तारा-निकाय।
परपंच प्रलय मा कुलि बिलाय॥१६॥
जेकरे सुहुराये तम अमेय।
कुलि नाम-रूप काँ लीलि लेय॥१७॥
जे बिसयी-बिसय-बिभेद-हीन।
कइ देय सुप्ति माँ जग बिलीन॥१८॥
सून्योदधि के भित्तर बिसेस।
जेकर पलना रहि जाय सेस॥१९॥
जेकरे चाहे, जग-सृजन-हार।
उपजै बिरंचि पंकज-मझार॥२०॥
जेकरी करुना कै परे बारि।
उठि परै पुरुस लोचन उघारि॥२१॥
मारै मधु-कैटभ काँ दुरंत।
भासै जड़-जंगम जग तुरंत॥२२॥
ऊ माई बहु बानक बनाय।
आँखिन के आगे प्रगट बाय॥२३॥
वहि बिस्व-रूपिनी कै सरूप।
लखि मोर कंटकित रोम-कूप॥२४॥
अब तौ कोरा माँ मूँड़ डारि।
अँसुवन से पावन पग पखारि॥२५॥
मन कै सगरिउ स्रद्धा निचोरि।
ओकाँ प्रवनउँ नह दसौ जोरि॥२६॥
जय जय जय सक्ति अनादि अंब।
जय ब्रह्मसरूपिनि निरालंब॥२७॥
जय जय जय बहुरूपिनि एक रूप।
जय जय जय भय-भंजिनि अनूप॥२८॥
तैँ अनुवौ से ह्वइकै महीनि।
भरि लिहे रूप से लोक तीनि॥२९॥
जब धरती व्योम न दिसा चारि।
तब साँस लिहे तैँ बिन बयारि॥३०॥
सित-लोहित-स्यामल तोर पास।
तैँ रचे बरस, रितु अउर मास॥३१॥
तैँ अमरित कै घरिया पियाय।
राखे सब जीवन काँ जियाय॥३२॥
जस बल्ली से पल्लव अकूत।
तस तोसे प्रगटैँ पंच-भूत॥३३॥
केउ कहै भाव औ केउ अभाव।
मुल तोर न जानै केउ स्वभाव॥३४॥
तोरे स्यंदन कै सिखर ब्योम।
दूनौँ पहिया रवि अउर सोम॥३५॥
तोरे हाँके पै सात रंग।
सातौँ दिन कै धावैँ तुरंग॥३६॥
तोरे सागर माँ बुजबुजाय।
छिन छिन माँ आपन छबि देखाय॥३७॥
अनगिंतिनि लोकन कै निकाय।
बुल्ला अस बनि बनि कै बिलाय॥३८॥
तैँ निराकार ह्वइकै अनाम।
धइकै प्रगटे बहु रूप-नाम॥३९॥
धरती-समुद्र-अंबर-अछोर।
ई बिस्वरूप साकार तोर॥४०॥
लरिकन ताईं ह्वइकै अधीर।
तैँ बने दहिउ-गुर अउर छीर॥४१॥
कतहूँ अनाज तौ कहूँ बारि।
तैँ लदी फरन से कहूँ डारि॥४२॥
कतहूँ कछार औ कहूँ भीट।
कतहूँ पसुपंछी-कमठ-कीट॥४३॥
मनई-मछरी-तरु-तिरिनि-बेलि।
सब माँ देखौँ तोकाँ अकेलि॥४४॥
कतहूँ परती कतहूँ पठार।
कतहूँ मरुथल-बीहड़ अपार॥४५॥
कतहूँ ऊसर कतहूँ पहाड़।
कतहूँ भीसन झंखाड़-झाड़॥४६॥
फरवार कहूँ तौ कहूँ खेत।
तौँ कहूँ धूरि तौ कहूँ रेत॥४७॥
तैँ कहूँ छाँह तौ कहूँ धूप।
तैँ अन्नपूरना भूमि-रूप॥४८॥
बहु ग्राम-नगर औ नदी-ताल।
तैँ प्रगटे बनि कै बन बिसाल॥४९॥
तैँ कोटि कोटि उडु-नखत-जाल।
तैँ ब्रह्मलोक औ तैँ पताल॥५०॥
तोरे आँचर कै नायँ छोर।
तोरी करुना कै नायँ ओर॥५१॥
तोरे सरूप कै बा न अन्त।
तैँ खड़ी घेरि कै दिग-दिगंत॥५२॥
तोरिनि काया, तोरै परान।
बुधि तोरिनि, तोरै दीन ग्यान॥५३॥
तोरे बल डोलै हाथ-गोड़।
माई! प्रणाम तोकाँ करोड़॥५४॥
अपनी रज के कन से ललाम।
तैँ रचे दृस्य नयनाभिराम॥५५॥
केतना रावन सब काँ सताय।
गै तोरी माटी मा समाय॥५६॥
तोरे घूरे कै खाय अंस।
कीयाँ अस रेगैँ केतिक कंस॥५७॥
केतनी खोपड़िनि का तैँ उठाय।
तासा मिढ़ि मिढ़ि डारे बजाय॥५८॥
तोरे परबत पर से असीम।
केतना अरजुन औ केतिक भीम॥५९॥
लइकै बल कै भारी गुरूर।
भहराय ह्वइ गये चूर चूर॥६०॥
औरंगजेबन कै कवन बाति।
तैमूरन कै केतनी बिसाति।६१॥
सब तोरे सोहैँ चिटचिटाय।
गै पैरा अस बरि-बरि बुताय॥६२॥
तोरी छाती-उप्पर अमेय।
अनगिंत चक्रवर्ती अजेय॥६३॥
उपजैँ बिनसैँ भिनकैँ निछान।
दिन-राति मसा-माछी समान॥६४॥
केतने सिर कै उतरे किरीट।
केतरी नगरी बनि गईँ भीट॥६५॥
मुल तैँ अबिचल औ निरबिकार।
भा टेढ़ न एक्कौ तोर बार॥६६॥
तोरे पग पै माथा नवाय।
घासी कै रोटी खाय खाय॥६७॥
भुइँ पै खूनन कै छोड़ि छाप।
भै अमर केतिक राना प्रताप॥६८॥
तोरे अँगना कै पारिजात।
भूखन काँ बाँटिनि दालि-भात॥६९॥
रज तोरि अँगुरियन से उठाय।
भै सिद्ध केतिक रिसि-मुनि बुकाय॥७०॥
तोरी किरनिनि माँ धीकि धीकि।
भै केतिक लुटेरौ बाल्मीकि॥७१॥
तोरे नह कै पाये उजास।
केतना मूरख भये कालिदास॥७२॥
तोरे पलना पै लोटि लोटि।
अनगिंत ब्यास पहिरिनि लँगोटि॥७३॥
तोरी भिच्छा कै खाय ग्रास।
केतना आन्हर भये सूरदास॥७४॥
सूअर-सियार-कूकुर-कुरंग।
गोजर-बीछी-भालू-भुजंग॥७५॥
तैँ सब काँ निज संतान जानि।
छातीँ लपटाये एक खानि॥७६॥
रोगी-दोखी-कोढ़ी-कपूत।
समझे न केहू काँ तैँ अछूत॥७७॥
जग-बिजयी राजा अउर रंक।
सबका समान बा तोर अंक॥७८॥
तोरे रेसम कै ई दुकूल।
तोरेन उपवन कै चुनेउँ फूल॥७९॥
तोरेन दूधे कै चुरी खीरि।
तोरै हरदी तोरिनि अबीरि॥८०॥
तोरै अच्छत औ गंध-दीप।
तोरेन हाथें लायउँ समीप॥८१॥
तोरिनि जिभिया से टेरि नाउँ।
पैँ पूजन के तोकाँ डेराउँ॥८२॥
तैँ तौ माई! बाटे बिराट।
ना नह देखउँ औ ना ललाट॥८३॥
मारै पिरीति कै नदी तोड़।
मैँ कइसै पकरउँ तोर गोड़॥८४॥
लेखनी आँसु माँ बोरि बोरि।
कीरति कै कविता लिखउँ तोरि॥८५॥
बा मोर अँतरधन अउर काव।
स्रद्धा से बिझी बाय नाव॥८६॥
तोरे कोछेँ मैँ महामंद।
दुइठूँ पूजा कै धरउँ छंद॥८७॥
स्वीकार अंब! करु भेटि मोरि।
चाहउँ चरनन कै धूरि तोरि॥८८॥
(प्रथम सर्ग समाप्त)
__आचार्य विश्वनाथ पाठक
रचना : ‘सर्वमंगला’
भवदीय प्रकाशन
शृंगारहाट
अयोध्या-फैजाबाद
घर कै कथा कहाँ से मिल सकती है?