तनी झूम के बरस कजरारे बदरा! (कवि: आद्याप्रसाद ‘उन्मत्त’)
आधुनिक अवधी कविता के खास कवियन मा गिना जाय वाले आद्या प्रसाद ‘उन्मत्त’ कै जनम १३ जुलाई १९३५ ई. मा प्रतापगढ़ जिला के ‘मल्हूपुर’ गाँव मा भा रहा। यै अवधी अउर खड़ी बोली दुइनौ भासा मा लिखिन। ‘माटी अउर महतारी’ उन्मत्त जी की अवधी कबितन कै संग्रह है। अवधी गजलन और दोहन के माध्यम से काफी रचना किहिन। इनकै काब्य-तेवर ललकारू किसिम कै है: “तू आला अपसर बना आजु घरवै मूसै मा तेज अहा, / अंगरेज चला गे देसवा से तू अबौ बना अंगरेज अहा।” काल्हि दिल्ली मा पहिली बारिस भै तौ हमरे दोस्त सर्वेस कवि मृगेस कै कविता ‘उजरि बदरवा मानी होइ गये’ याद करै लागे। ई कविता खेजेन, नाय मिलि पाई। फिलहाल यहि बारिस पै उन्मत्त जी कै कविता ‘तनी झूम के बरस कजरारे बदरा’ मिली, यही कै आस्वाद कीन जाय!

नदी कूप सर ताल के सहारे बदरा
तनी झूम के बरस कजरारे बदरा।
बदरा बरस पियासी धरती कै छाती बा दरकी,
लता पतर सूखे बिरछन कै टहनी सगरी लरकी।
घूम घूम के बरस कजरारे बदरा
तनी झूम के बरस कजरारे बदरा।
ताल तलइयन अब पानी के बदले धूरि उड़ावैं,
चिरई अउर चिरोमन झंखैं मन आपन समझावैं।
बड़ी धूम से बरस कजरारे बदरा
तनी झूम के बरस कजरारे बदरा।
अंधाधुंध बरस धरती कै चूनर कै दे धानी,
हर लैके मँहगू निकरैं औ बिया लिहे सिउरानी।
आँख मूँद के बरस कजरारे बदरा
तनी झूम के बरस कजरारे बदरा।
झुंड झुंड लरिकन का जुरिके खेलै काल कलौती,
मोरे अँगना बरस कि नरदा से बहि निकरै मोती।
माँगी इहै तोसे अँचरा पसारे बदरा
तनी झूम के बरस कजरारे बदरा।
बदरा बरस कि खेतन मा उपजै सोने कै बाली,
नाचैं पहिर महतुइन महतौ देखि बजावैं ताली।
दुखी दीनन के प्रान के पियारे बदरा
तनी झूम के बरस कजरारे बदरा।
राह निहारत सगरी रतिया तिल तिल कइ के सरकी,
ऐसन बरस बिदेसी कन्ता का सुधि आवै घरकी।
हिया हूम के बरस कजरारे बदरा
तनी झूम के बरस कजरारे बदरा।
__कवि आद्याप्रसाद ‘उन्मत्त’
तनी झूम के बरस कजरारे बदरा।
बदरा बरस पियासी धरती कै छाती बा दरकी,
लता पतर सूखे बिरछन कै टहनी सगरी लरकी।
घूम घूम के बरस कजरारे बदरा
तनी झूम के बरस कजरारे बदरा।
ताल तलइयन अब पानी के बदले धूरि उड़ावैं,
चिरई अउर चिरोमन झंखैं मन आपन समझावैं।
बड़ी धूम से बरस कजरारे बदरा
तनी झूम के बरस कजरारे बदरा।
अंधाधुंध बरस धरती कै चूनर कै दे धानी,
हर लैके मँहगू निकरैं औ बिया लिहे सिउरानी।
आँख मूँद के बरस कजरारे बदरा
तनी झूम के बरस कजरारे बदरा।
झुंड झुंड लरिकन का जुरिके खेलै काल कलौती,
मोरे अँगना बरस कि नरदा से बहि निकरै मोती।
माँगी इहै तोसे अँचरा पसारे बदरा
तनी झूम के बरस कजरारे बदरा।
बदरा बरस कि खेतन मा उपजै सोने कै बाली,
नाचैं पहिर महतुइन महतौ देखि बजावैं ताली।
दुखी दीनन के प्रान के पियारे बदरा
तनी झूम के बरस कजरारे बदरा।
राह निहारत सगरी रतिया तिल तिल कइ के सरकी,
ऐसन बरस बिदेसी कन्ता का सुधि आवै घरकी।
हिया हूम के बरस कजरारे बदरा
तनी झूम के बरस कजरारे बदरा।
__कवि आद्याप्रसाद ‘उन्मत्त’
‘राह निहारत सगरी रतिया तिल तिल कइ के सरकी,
ऐसन बरस बिदेसी कन्ता का सुधि आवै घरकी।’
उन्मुक्तजी कै यह कबिता मौसम के मिजाज़ के हिसाब ते बहुत नीक हवै.बदरन के आवाहन के साथ-साथ विरहन का विजोग भी तरसा रहा हवै.
उन्मुक्तजी को उन्मत्त जी पढ़ा जाय !
उन्मत्त जी की सुंदर कविता ‘तनि झूम के बरस कजरारे बदरा’ पढ़वाने के लिए धन्यवाद अमरेन्द्र भाई ..
गरमी के मारे जिउ बड़ा अकुलान रहै….कविता पढ़ि कै सहियौ मा चोला हरिया गा….रचना पढ़वावै का बहुत आभार।
bhut sundar kvita lgi aap ki bhut bhut dhnyawad