कविता: ‘सहर कै बिटिया, गाँव के पतोहू’ (कवि: रामनरेश त्रिपाठी,१९५६)
खड़ी बोली हिन्दी के द्विवेदी युगीन कवियन मा गिना जाय वाले सिरी रामनरेश त्रिपाठी यहि अवधी कविता ‘सहर कै बिटिया, गाँव के पतोहू’ क लिखिन हैं। यहि कविता मा सहर औ गाँव के चाल-ढाल, रहन-सहन, खाना-दाना, उठब-बैठब, सोउब-जागब ..आदि कै अंतर देखा जाय सकत है। यक सहरी बिटिया क गाँव के जीवन मा पतोहू के रूप मा पहुँचाय के ई कविता रची गै है, हास्य कै पुट लिहे ई कविता आपके सामने प्रस्तुत है:
कविता: ‘सहर कै बिटिया, गाँव के पतोहू’
नइहर चली जाब,
हम न ससुर-घर रहबइ।
यहि ससुरे मा बुरुस न पौडर,
लकड़ी न चबाब,
हम न ससुर-घर रहबइ।
यहि ससुरे मा चाह न बिस्कुट,
चटबइ नाहीं राब,
हम न ससुर-घर रहबइ।
यहि ससुरे मा मेज न कुर्सी,
भुइयाँ कैसे खाब,
हम न ससुर-घर रहबइ।
यहि ससुरे मा कलब न सिनेमा,
कहाँ बैठि समाब,
हम न ससुर-घर रहबइ।
-रामनरेश त्रिपाठी
(अवध-भारती, जनवरी, १९५६)
~सादर/अमरेन्द्र अवधिया
शहर के बिटिया बटे गांवे मा तै मुश्किल होबे करी
बढिया है, यही तना खोज कीन्हे रहौ।
रामनरेश त्रिपाठी जी की इस सहज स्वाभाविक सी अवधी रचना को पढना अच्छा लगा!
आनंद दायक पोस्ट।
तोहर बदे बिजुरी लियली
तोहरे बदे टीवी बहुरिया
अब त हमहीं हई तोहरो बाप।