कविता : मन कै अँधेरिया (कवि-हरिश्चंद्र पांडेय ‘सरल’ / कंठ-डा. मनोज मिश्र)
कबि अउर कबिता : कबि हरिश्चंद्र पांडेय ‘सरल’ कै जनम सन १९३२ मा फैजाबाद-अवध के पहितीपुर-कवलापुर गाँव मा भा रहा। इन कर बप्पा महादेव प्रसाद पाड़े रहे, जे बैदिकी क्यार काम करत रहे। सरल जी कै दुइ काब्य-सँगरह आय चुका हैं, ‘पुरवैया’ अउर ‘काँट झरबैरी के’। इनकी कबिता मा करुना औ’ निरबेद कै कयिउ रंग मौजूद अहैं, दीनन के ताईं दरद अहै, सुंदरता कै बखान अहै मुला बहुतै सधा-सधा, जाति-धरम के झकसा के मनाही कै बाति अहै अउर सुभाव कै सलरता कै दरसन बित्ता-बित्ता पै अहै। साइद ई सरलतै वजह बनी होये नाव के साथे ‘सरल’ जुड़ै कै।
यहि कबिता ‘मन कै अँधेरिया’ मा कबि जी गरीबे कै कातर आवाज सामने लावा अहैं। यहिके पहिले यह गीत पोस्ट किहे रहेन, जेहिमा गरीब कहत रहा कि ‘अँधेरिया तौ आँकै’। यहू गीत मा गरीबे/मजूरे कै बेदना वही रूप मा आई अहै। भला के है सुनवैया! अकेल है किसान/गरीब/मजूर! न देवता! न धरम! न मंदिर! न महजिज! न गिरिजाघर! कसक हमेसा बाकी रहि जात है, ‘का मोरे दिनवा बहुरिहैं कि नाँहीं!!’
कंठ : यहि गीत का कंठ डाकटर मनोज मिसिर जी दिहिन हैं। इनसे हम आजै निवेदन किहेन औ’ गीत भेजेन। मनोज जी का गीत अस पसंद आवा कि दुइ घंटा के भितरै हमैं आवाज कै यमपी-थिरी फाइल भेजि दिहिन। सबसे बड़ी बाति कि मनोज जी कै याद जागी अउर कहि परे कि हम सरल जी कै ई गीत अस्सी के दसक मा सरल जी केरी आवाज मा इलाहाबाद मा सुने अहन। फिर सरल जी के लय मा सुधियाय-सुधियाय कंठ दियै कै परयास किहिन। आज तौ ई गीत आनन-फानन मा होइ गा मुला फिर से अउरौ तैयारी के साथ मनोज जी यहि गीत का फिर से कंठ देइहैं, ई मनोज जी कै हार्दिक इच्छा अहै।
अब आपके सामने कबिता हाजिर है फिर वहिकै यू-टुबही प्रस्तुति :
कबिता : मन कै अँधेरिया
मन कै अँधेरिया अँजोरिया से पूछै,
टुटही झोपड़िया महलिया से पूछै,
बदरी मा बिजुरी चमकिहैं कि नाँहीं,
का मोरे दिनवाँ बहुरिहैं कि नाँहीं।
माटी हमारि है हमरै पसीना,
कोइला निकारी चाहे काढ़ी नगीना,
धरती कै धूरि अकास से पूछै,
खर पतवार बतास से पूछै,
धरती पै चन्दा उतरिहैं कि नाँहीं।
… … का मोरे दिनवाँ बहुरिहैं कि नाँहीं।
दुख औ दरदिया हमार है थाती,
देहियाँ मा खून औ मासु न बाकी,
दीन औ हीन कुरान से पूछै,
गिरजाघर भगवान से पूछै,
हमरौ बिहान सुधरिहैं कि नाँहीं।
… … का मोरे दिनवाँ बहुरिहैं कि नाँहीं।
नाँहीं मुसलमा न हिन्दू इसाई,
दुखियै हमार बिरादर औ भाई,
कथरी अँटरिया के साज से पूछै,
बकरी समजवा मा बाघ से पूछै,
एक घाटे पनिया का जुरिहैं कि नाँहीं।
… … का मोरे दिनवाँ बहुरिहैं कि नाँहीं।
आँखी के आगे से भरी भरी बोरी,
मोरे खरिहनवा का लीलय तिजोरी,
दियना कै जोति तुफान से पूछै,
आज समय ईमान से पूछै,
आँखी से अँधरे निहरिहैं कि नाँहीं।
… … का मोरे दिनवाँ बहुरिहैं कि नाँहीं।
(~हरिश्चंद्र पांडेय ‘सरल’)
अब यहि गीत का सुना जाय मनोज जी केरी आवाज मा :
[youtube http://www.youtube.com/watch?v=LDeSIEM4Z0w&w=420&h=345]
~सादर/अमरेन्द्र अवधिया
बहुत दरद है यहि कविता मा ! डॉ. मनोज मिसिर ने अपनी मीठी अवाज़ म दरद को दुगुन कई देहेन हैं.उनका विसेस अभार !
धन्यवाद अमरेन्द्र भइया,हम फिर फुर्सैते एका गाईब..ई गीत में बहुत दर्द बा.
अमरेन्दर भाई
ई कविता ना ह ई जिनगी के जवन हो रहल बा आम लोगन के साथे ओकरे सच्चाई ह , कहल जाउ त हरिश्चन्द्र पांडे जी दिल आ दिल से निकल आवाज के उझिल के रख देले बानी !
आ एह कविता के एगो खासियत जवन हमके बुझाईल ह उ इहो बा की एह गीत के केहु पढी त गुनगुना के पढी !
अदभुत , ममस्पर्शी , भाव से भरल , दिल के आवाज ई कविता सांचो मील के पथर बा मातृ भाषा मे रचाईल आ लिखल गीतन खाति !
बहुत बहु धन्यवाद भाई जी
यक दिल से लिखे गीत कै आप दिल से आस्वाद किहिन, ई गेयता मादरी जुबानै मा मिले , अब दिनकर जी वाली बतिया केत्ती सही लागति अहै, कि सच्चा गीत मादरी जुबानै मा रचा जाय सकत है! आभार भैया!
सरलजी के इस गीत को जो टाँसी है वो पूरी तरह से खाँटी है. और ये बखूबी मनोज जी के स्वर से उभर कर आयी भी है. मनोज भाई तक मेरा हार्दिक अभिनन्दन संप्रेषित कर देंगे, इसका विश्वास है.
–सौरभ पाण्डेय, नैनी, इलाहाबाद (उ.प्र.)
आपकै हार्दिक अभिनंदन हम मनोज जी ले पहुँचाय दिहेन, अबही यक बार और तैयारी से मनोज जी यहिका गइहैं, अस हार्दिक इच्छा व्यक्ति किहिन हैं।
बहुतै नीक गायेन मनोज भैया
Very melodius!
बहुत आनंददायक
मनोज जी के स्वर ने इस प्रविष्टि को और भी सुन्दर बना दिया है ।
अद्भुत गीत । रचनाकार को नमन ।
डा.मनोज मिश्र की आवाज में यह गीत सुनना बहुत अच्छा लगा। बहुत अच्छा।
सरल जी के बाकी गीत भी मनोज जी की आवाज में पोस्ट किये जायें।
यह गीत पढ़वाने-सुनवाने के लिये शुक्रिया। 🙂
बिलकुल साहब! निबेदन कै दिहे हन! 🙂
अमरेन्द्र भाई ,,
बहुत बहुत धन्यवाद् एतना सुन्दर गीत के साझा करे खातिर ……कई बेर सुन चुकली पर मन ना भरल ….आम आदमी जी जिनगी से जुडल , रचल बसल गीत बा,,,,,जेके मनोज जी स्वर देके और भी जीवंत कर देहले बाडन बहुत बहुत बधाई !!!
डा0 मनोज मिश्र जी की आवाज में यह गीत सुनना अच्छा लगा। टेप किया हूँ औरों को सुनाने के लिए।
..आभार।
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गीतन मा गांव कि माटी कई सुबास है ,जवन हम सबका अपनी जमीं से जुड़े के खातिर परेरना दीयत है | भैया बहुते सुंदर औ सुहावन लाग ,शब्दन मा का कही ?
अमरिंदर जी ! इन सब गीतन का हम उनहूँ कि तैं सुनावे खातिर सहेजि लेयिति अहै जेहिकई पहुँच कम्पूटर तक नहीं बा |
काव्य उहै हवे जिहि कई अनुवाद वही भासा मा फिर न ह्वै सकै ,यहि परिभासा पे यइ सब गीत औ गीतकार कई अंदाज खरा उतरा है |
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यह मेरा परम सौभाग्य है कि मैंने फैज़ाबाद में अनेक अवसरों पर पूज्य सरल जी को प्रत्यक्ष कव्यपाठ करते सुना था । जब वह स्वयं अपने भारी स्वर मे अपने गीत गाते थे तो श्रोताओं के मध्य करुणा का सागर लहराने लगता था । अब इसे भाई डॉ मनोज मिश्र ने बहुत सुंदर गाया है , उन्हें साधुवाद ।