कवि रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ [ 2 ] : ” सिरताजी अइया .. ” ( हिंदी-भावार्थ-सहित )
बिद्रोही जी की रचना की – पहिली किस्त – के बाद ई दुसरकी किस्त है :
कवि रमासंकर यादौ ‘बिद्रोही’ ३ दिसंबर १९५७ क सुलतापुर – अवध – के अइरी फिरोजपुर गाँव म पैदा भये . आर्थिक तंगी के चलते पढ़ाई छोडि के नौकरी पकरिन . कुछ समय आंतर नौकरी छोड़ दिल्ली आये . दिल्ली आयके जेयन्नू ( J .N .U. ) म यम्मे कोर्स म दाखिला लिहिन . छात्र राजनीति से जुड़ा रहे और अबहिनउं हिस्सेदारी लेत हैं . कुछ बिसंगति के चलते आगे कै पढ़ाई नाय होइ सकी . फिलहाल बिद्रोही जी जेयन्नू कैम्पस म अक्सर हम सबसे मिलत हैं अउर ग्यान कै बातैं करत हैं . बिद्रोही जी कै रचना ‘सिरताजी अइया’ प्रस्तुत अहै ( तर्ज बिरहा कै है ) :
सिरताजी अइया ..
निक निक मनई चला गए संउकेरवइं
जिया थें मउतिया जीति के अपराधी
मरि त गइन सिरतजिया चमाइन
गउंवा के नतवा लगइं जी मोरी आजी
मचिया बैठि मोरी घटिया बिठावइं
कुथरू फोरइं जी मोरे बरदा की माछी
चढ़ि ग धियनवा बिकल होइगा जियरा
दुनिया थहावइं मोरी अंखिया पियासी
रतिया भ मइया तकावइं अन्हियरवा
दिनवा भ जोगवइं खैरवा अ पनवा
हमरी पुतरिया अंकुरि आये अंकुआ
कटि के रकत मोर होइ ग भंहुववां
काउ कही मितवा खुनाइ गई अखिया
दोखही नजर बैगुनवइ सुझाये हो
चलती डगरिया जे हंसि के तकाये होये
मुड़वउ काटे न ओकइ सुधिया भुलाये हो !
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हिन्दी में भावार्थ : उपरोक्त रचना में कवि विद्रोही श्रद्धा विभोर होकर अपनी ‘सिरताजी अइया’ को याद कर रहे हैं , उनकी नेकी को याद कर रहे हैं . कवि को दुःख है कि अच्छे (नीक) लोग जल्दी से दिवंगत हो जाते हैं और अपराधी लोग मृत्यु को जीत कर जिया करते हैं . नेक सिरताजी चमाइन का जाना ऐसा ही है जो गाँव के नात से अइया लगती हैं जिन्होंने बचपन में मचिया पर बैठकर/बैठाकर मेरी घाटी बिठाई और बैल के ऊपर बैठने वाली मक्खी से मेरे आँखों की कुथरू को ठीक किया . कुथरू फोरने को थोड़ा विस्तार देना समीचीन होगा . आँखों में पलकों में भीतर की ओर दर्द देने वाला दाना हो जाता है जिसे कुथरू कहते हैं , कहीं कहीं इसे ‘रोड़ा’ भी कहते हैं , इसमें बड़ी पीड़ा होती है . इसके इलाज के लिए सिरताजी अइया बैलों पर बैठने वाली मक्खी के नुकीले पैर से उस दाने को स्पर्श कराती थीं और खून निकलने के साथ वह दाना फूट जाता था . सिरताजी अइया की याद के साथ ये सारी बातें याद आ रही हैं . इन बातों का ध्यान होने पर विद्रोही-चित्त विकल को जाता है . ये आँखें पूरी दुनिया की थाह लेने लगती हैं . बहुत सी चीजें याद आती हैं , कुथरू-अवधि में महतारी द्वारा अँधेरे के ओर दृष्टि रखवाना , दिनभर खैर और पान की व्यवस्था , फिर पुतली के मध्य से दृष्टि-रूप अंकुर का उदय , भौं-स्थान का रक्तिम होना ! अंततः व्याज-कथन के रूप में कवि वाणी है – ” क्या कहा जाय मित्र , याद करते हुए ये दोषी अवगुणी आखें फिर खुना आयी हैं , उत्साह बढ़ाते हुए कोई जीवन-राह दिखाया हो तो सर काट लिए जाने पर भी उसकी सुधि ( याद ) नहीं बिसरती/बिसरेगी ! ”
नोट : ई कबिता बिद्रोही जी कै संग्रह ”नयी खेती” से लीन गै है , जौन अबहीं कुछै दिन पहिले आवा है .
सादर ;
~ अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी
कवि रमासंकर यादौ 'बिद्रोही' जी से मिलवाने के लिए आभार
ओह…
विद्रोही जी की कविता का आनंद, हमारे लिए हिंदी भावार्थ के साथ ज़्यादा बढ़ गया…आभार…
इस तरह के कवि और उनकी कविताओं से मिलवाना ब्लोग जगत के लिए एक धरोहर है।
आभार आपका
वाह मुझे देख कर दिल से ख़ुशी हुई है ….आप इस तरह की धरोहरों को जो हमारे सामने लाने का काम कर रहें है …आप को दिल से धन्यवाद और इस तरह के अनुवादों के साथ हमारी अंदरूनी संस्कृति को बहार तक लाने में आप के योग दान के हम आभारी भी और आशा भी की और इस तरह की धरोहरों को आप लायें ….सादर NIRAML paneri
@ निर्मल जी ,
अनुवाद/भावार्थ कार्य जरूरी व उपयोगी रहा , राजस्थान के ही एक अन्य काव्य-प्रेमी रवि जी ने इस दिशा में उचित परामर्श दिया. आगे भी भरसक खड़ी बोली-हिन्दी में यत्किंच हिंट/टीप/विशेष आदि रखकर सुभीता करना चाहूँगा . आप जन के उत्साह बढाने का नतीजा है कि ई पातकी बन्दा कुछ किहे जा रहा है ! सादर !
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अमरेन्द्र भाई,
विद्रोही जी केर बातई कछु अउर है,
मुला इहौ प्रयास कीन जाये कि अवधी केर लोकगीतन का एक जगह सँहेजे केर प्रयास हुई जात तवले ई धरोहर केर मान मा चारु-चाँद लगि जात ।
कबी रबिसंकर जी “बिद्रोही” केरी कविता हियाँ प्रस्तुत करइ बदि, अमरेन्द्र भाई तुम्हार बहुत बहुत आभार!
तुमरे प्रयासन ते हम सबका अवधी के लिखैयन केरे बिसय मां जानइ का मिलति है…धन्यबाद!
विद्रोही जी केरी कविता पसंद करै बरे सबका बहुत बहुत सुक्रिया !
@ अमर कुमार जी ,
सुक्रिया डॉक. साहेब , लोकगीतन की तोह मा अहन . कुछ जुहाय गए हैं और कुछ के खातिर राम नरेश त्रिपाठी जी कै संकलित किताब खोजत फिरत अही . इहौ काम बहुत जरूरी अहै . सादर !
यादगार !
यह हिन्दी भावार्थ साथ में देना बहुत सही है – हम जैसे अवध वालों को भी पढ़ने – समझने में सुभीता रहता है।
बहुत अपनी ओरी क लाग सिरताजी आजी क बिबरन।
बहुत सुन्दर….एकदम गंवई सौंधापन।
आनंद आ गया… हिन्दी भावार्थ देकर बढ़िया किया आपने…
विद्रोही जी कैसे हैं आजकल??