शीत पर दो छंद
मेरे पितामह स्व.कामता दत्त मिश्र ‘दत्त’ के दो छंद
आप सबके साथ बाँटना चाहता हूँ !
१-
पाला को रिसाला इही साला बढ़ो एतो ‘दत्त’,
ऊन के दुसाला न कसाला हरैं तन कौ !
सरिता की धार तरवार ते अधिक तीखी ,
बहत बयार हिमसार सालै तन कौ !
तापिये जो आगि आगे पीठि माँ बयारि लागै,
बैठे मानो नांगे- नांगे एतो शीत धमकौ!
सीत को सतायो पारा सीसे की नली में बंद ,
एतो गयो सिकुरि लखात नाहीं कनकौ !
२-
मारुत रिसालदार ‘दत्त’ हिम तोपदार ,
वारिवार बरदार भूमि भई भेरी है !
सीत-सेनापति संग मदन महीप सेना ,
अबला अकेली जानि चहुँघान घेरी है !
भयभीत भानु अग्नि कम्पित लुकत गोद
ज़ालिम गनीम है बिसात कौन मेरी है !
मारत कुजाती मोहिं कंस के विघाती सुनो ,
छाती के बचाईबे को ढाल छाती तेरी है !
नोट : यहि पोस्ट क मिसिर जी पोस्ट किहे रहे, मुला ब्लागर से वर्डप्रेस पै लावै म तकनीकी वजह से पोस्टेड बाई म उनकै नाव नाहीं आय सका, ब्लागर वाले ब्लाग पै अहै, यहिबरे ई नोट लिखत अहन! सादर; अमरेन्द्र ..

्बहुते सुन्दर!
यह थोड़े से अर्थ स्पष्ट कर देवें
रिसाला=
कसाला=
रिसालदार=
वारिवार बरदार भूमि भई भेरी है !=
इन छंदों के रचना कार को भावपूर्ण सादर प्रणाम !
'सीत को सतायो पारा सीसे की नली में बंद ,
एतो गयो सिकुरि लखात नाहीं कनकौ !'
वाह ! बहुत अच्छे छंद हैं.
वाह भैया जलाये रहौ क्वैरा आँच मन्द न परै। दुइ लाइन मा रचनाकार क्यार परिचय और दै दीन करो।
@ श्याम जी ,
आर्य , अर्थ प्रस्तुत हैं :
रिसाला = अश्वारोही सेना
कसाला = कष्ट , तकलीफ
रिसालदार = अश्वारोही सेना का एक आफिसर
वारिवार बरदार भूमि भई भेरी है ! = भूमि चारों ओर से (आवरण की तरह ) जल-मंडल को धारण की हुई है !
( यहाँ बरदार का अर्थ धारण-कर्त्री से हैं और 'भेरी' , 'भेरा' का स्त्री-रूप है , भेरा का अर्थ आवृत करने से है , '' राम नाम लिखि 'भेरा' बांधौ कहै उपदेस कबीरा '' )
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पाला/शीत-लहरी का परिवेश बतलाया गया है ! दूसरे छंद को मैंने पूर्व में ही कहा है कि यहाँ युद्धक-रूपक है , पाला शत्रुरूप में उपस्थित है , धरणी और सूर्य की भी हालत खराब है , शत्रु बड़ा जालिम है , हम आम-जन क्या रोक सकेंगे इसे , हमारी क्या बिसात , यह कुज ( असुर – जो धरती से पैदा हुआ था ) रूपी शत्रु दाहने पहुंचा है , इसलिए कंसारि को याद किया गया है !
छंदकार कवि फारसी आदि भाषाओं का ज्ञाता रहा है , इसलिए पंक्तियों में पांडित्य का वैविध्य है और दूसरी ओर अवधी की प्रकृति भी है जिसमें संस्कृत-अरबी-फारसी सब मजे की जज्ब को जाती हैं ! मानसकार बड़े उदाहरण हैं इसके , उनके राम 'गरीब-नेवाज' हैं , और ऐसी मेल-जोली संधि क्या खूब करते हैं : सु+साहिब !!
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श्याम जी , आपका आगमन सात्विक काव्य-विनोद का हेतु बनता है , आनंद आता है देव !
@ भारतेंदु जी ,
इन छंदों को इस ब्लॉग के सहयोगी रचनाकार 'मिसिर' जी ने पोस्ट किये हैं , मिसिर जी के प्रति आभारी हूँ , मिसिर जी से मेरा विनम्र निवेदन है कि अगली बार कवि-परिचय बढाते हुए छंदों को प्रस्तुत करके हम सभी को अनुग्रहीत करेंगे ! सादर..!
अमरेन्द्र जी, बहुत बहुत सुन्दर! शीत को लेकर रचे गए यह छंद और उस पर आपकी सम्यक व्याख्या ने मुझे अपने कालेज के दिनों का स्मरण करा दिया..अपने शांत साहब के साथ बिताए वे दिन याद करवा दिए, जब हम उनसे कामायनी पढ़ा करते थे..ठीक ऐसी ही व्याख्या …बात में से बात निकालनी और बात में बात पिरोनी!! अपनी पढाई के दिनों में मैंने कभी भी इन चीज़ों (अलंकार आदि) को अधिक ध्यान से नहीं पढ़ा था; आज वह कमी महसूस हो रही है! छंद का ज्ञान मेरे पास होता तो शायद मेरी रचना भी कविता हो पाती .. खैर इन चीज़ों का कोई अफ़सोस भी नहीं..यह तो बस यूं ही लिख गया ..
वाह! आनंद आ गया।
ऐसे छंद लिखो तो अर्थ भी लिखो भाई।
अपनी हिंदी तो आधुनिक हो चुकी भाई।
..रिसाला-कसाला का जवाब नहीं है।
!वाह अमरेन्द्र सर आप ने कही मेरे दिल की बात पढ़ ली मझे दिन में कही बार पड़ने पर दो ही लाइन बार बार समझ आ रही थी पर पूरा का पूरा कुछ समझ नहीं आया …पर छंदों को समझने की कोशिश जरुर कर रहा था कही …अभी आपने इस को सही रूप में दिया उसका शुक्रगुजार दिल से धन्यवाद …बहुत सार्थकता लिए छंद और जीवन में कही बहुत उपयोगी जीNirmal Paneri
@ श्याम जी , शुक्रिया श्याम जी , बस ऐसे ही बात से बात निकलती रहती है और साहित्य भी !
@ निर्मल जी , आज जब कहेंगे , बन्दा अर्थ-विस्तार के लिए हाजिर रहेगा , निःसंकोच कहा कीजिये , विलम्ब हो सकता है व्यस्तताओं के चलते पर आपके आदेश का पालन अवश्य होगा 🙂
सभी अवधीप्रेमी रसिकों का बहुत बहुत स्वागत और आभार ,
अमरेन्द्र जी की व्याख्या से इन्हें समझना आसान हुआ ,
उनके प्रति भी आभार व्यक्त करता हूँ !
वाह पितामह वाह , बहुत बढ़िया ।
अब तौ सीत मंद परिगइ, बाबा केरे छंद बिलकुल तस्बीर खैंचि दिहिन हइ जाड़ेन केरी, पढिके जिउ गरमाइ गवा…
आभार!