कौवा-बगुला संबाद , भाग-२ : इंसानियत कै घटब अउर पेड़न कै कटब …
( यक ताले के लगे दुइनिव मिलत हैं )
बगुला : ( कौवा का आकास-मार्ग से आवत देखि के ) आओ दोस्त ! तोहरय इंतिजार करत रहेन …
कौवा : (बगुला के सामने बैठि के ) राम जोहार !
बगुला : राम राम ! कुछ ग़मगीन लागत हौ , का बाति है …
कौवा : कुछू नाहीं हो | तू आपन बताओ …
बगुला : हमार तौ सब चंगा है | हमार सवाल अबहिनौ अपनी जगह बना अहै … का बाति है कि …
कौवा : साथी ! बाति तौ बेसक अहै …मानौ तौ बड़ी नाहीं तौ कुछू नाहीं |
बगुला : अरे कुछ बोलबो …
कौवा : यक जनीं बूढ़ा रहीं , वनहिन कै मरे के बादि कै दुर्गति नाय देखि गै हमसे !
बगुला : जब बूढ़ा मरी गयीं तौ दुनिया अउर दियह छूटि गै उनसे , अब फिर दुखी हुवै कै कौनौ बाति नाय न | हाँ , अगर दुखी हुवै कै सौख लागि हुवै तौ दुसर बाति अहै …
कौवा : गजब उलटवासी करत हौ … बूढ़ा मरि गयीं तौ का हमहूँ मरि गयन … हम सोचब काहे छोड़ि दी … भले हम वनके घरे नाय पैदा भयेन लेकिन इन्सान कै नेकी भुलावै हमै नाय आवत | इन्सान कै नेकी इंसानै भुलाय सकत है और इहै हमरे दुःख कै कारन है |
बगुला : सुनत अहन ,बोलत रहौ …
कौवा : बाति ई तब कै आय जब भारत अंग्रेजन के कब्जे मा रहा | अवध इलाका से बहुत मनई अंग्रेजन की फउज मा रखा गा रहे | यनही सैनिकन मा यक रहे बूढा कै मनसेधू | नाव रहा संकर बकस | संकर बकस कै जहाँ तहां डिउटी लगाइ दीन जाति रही | तब बूढा जवान रहीं | समाज और पिछड़ा रहा | साल डेढ़ साल बीति जाय अउर संकर बकस न आवैं तौ लोग अगल – बगल से बोली काटैं—” संकर बाबू कहूं लडाई मा … का पता चलि बसा हुवैं …भगवान न करै कुछू ख़राब भा हुवै … लेकिन ……” यहि समय बूढ़ा कै दुःख बाटै के बरे केहू नाहीं रहत रहा |
अंगना मा यक ठौरे नीमी कै पेड़ रहा जिहपै हम बैठि के सब देखत – समझत रहेन | अपने दुःख मा दुखी बूढ़ा हमै देखि के मनै-मन ई कहति रहीं —
” कागा रे ! जाव वहि देस जहाँ पिया गए …
लै आओ पी कै सनेस कहाँ पिया गए ?
कागा रे ! …जाव वहि देस … “
बूढ़ा कै बेदना दूर करै के ताईं हम संकर बकस कै पता लगाइ के बूढ़ा का सपने मा सब देखुवाय दियत रहेन | वैसे तौ इन्सान छुइ लियै तौ हम सोरहौ व्यंजन त्यागि दी मुला सच्चे मन से बूढ़ा कै दीन भात हम बड़े चाव से खात रहेन | भगवान कै महिमा की बूढ़ा सौ साल पूरा कैके हरा-भरा घर देखि कै मरीं | बूढ़ा खुद कम खाइन – पहिरिन लेकिन गेदहरन का पालि-पोसी के बड़ा किहिन | लायक बनाइन | आज वई बूढ़ा मरी गयीं अउर उनके लरिकन का आवै तक कै जरूरत नाय महसूस भै | लहुरा लरिकवा तौ हदै कै दिहिस | बूढ़ा कै दाह-कर्म के ताईं लकड़िउ नाहीं देखि-सुनि के लाइस | जाने केतना आम कै पेड़ वै लगाये रहीं | लरिकै सब कटाइ डारिन | बेंचि खाइन | यही वजह से बूढ़ा के दाह-कर्म के ताईं लकडी खरीदै का परा | बेचै वाला , खरीदै वाले कै लापरवाही देखि के आम के साथे बबुरौ कै लकडी दै दिहिस |
आज बबुर के लकडी के साथे बूढ़ा कै अंतिम विदाई देखि के हम रोई दिहेन | यही के ताईं ग़मगीन अहन | तुहिन बताओ – का बूढ़ा का अस विदाई मिलै का रहा …
बगुला : वैसे तौ अस नाय हुवै का रहा …लेकिन …
कौवा : अतना सब सुनि के भी तोहरे उप्पर कवनिउ फरक नाहीं परा …
बगुला : देखउ भाई ! हम पहिलेन बताय चुका हन कि ज्यादा सोचित नाय | फर्जी रोउब हमै आवत है लेकिन तोहरे सामने वहिकै कौनौ मतलब नाहीं ना | तोहरी बाति कै असर हमरे उप्पर वतनिन देरि तक रहत है जेतनी देरि आकास मा बिजुरी कै चमक | …फिर अन्धेरै-अंधेर … | लेकिन ई पेड़ कै कटब हमहूँ का ख़राब लागत है | कारन ई है कि पेड़न से हमरौ स्वारथ जुड़ा है | पेड़ कटाई कै सबसे ज्यादा खामियाजा इंसानै भुगते | सबसे बड़ी बाति है कि वातावरन चौपट होइ जात अहै | बरसात कै करम बिगडि गा अहै | सही कही तौ इन्सान पेड़ नाय काटत अहै , आपन गोड़ काटत अहै | आपन साँस काटत अहै | आगे-आगे देखउ का का होए … …
कौवा : ई तौ सही कहत हौ कि इन्सान अपनी जिंदगी के साथ खेलत अहै | वहिके ऊपर ई तुर्रा कि इन्सान धरती पै सबसे स्रेस्ठ अउर बुद्धिमान प्रानी अहै ! …
बगुला : साथी ! सामने देखउ … टेक्टर-टाली पै लोगै कटा पेड़ लै जात अहैं | अगर चला चाहौ तौ देखी कि का मामिला ह्वै रहा है …
कौवा : चलौ चली … …
( दुइनिउ टेक्टर-टाली के पीछे ह्वै लियत हैं )
[ आज अतरै, अउर अगिले अत्तवार का … राम राम !!! ]
छबि-स्रोत : गूगल बाबा
वाह भाई अमरेन्द्र जी….एक साथ कितनों का दर्द समेट लिया आपने..आज की पीढ़ी की व्याकुलता-आतुरता और हरियाली का क्रमशः भूरा होना….आपकी भाषा से दादी माँ की जबान का दर्द, चिंता और उनकी सहज ममत्व वाली मिठास मिल जाती है..और नास्टेल्जिक तो मै हो ही जाता हूँ…प्रशंशा तो क्या करुँ मै आपकी मै तो आपका आभारी हूँ कि आपने ये कलेवर न केवल सुविकसित किया वरन पूरी जिम्मेदारी के साथ उसका निर्वहन भी कर रहे हैं.
aapki jitni bhi prashansa ki jaaye kam hai….
ओह अमरेन्द्र जी, जवान पीढ़ी का तो ये हाल है कि रेलवे अस्पताल में बढ़े रिरियाते पाये जाते हैं डाक्टर के सामने कि उन्हें अस्पताल में ही भरती रहने दिया जाये। घर से बेहतर होता है वहां रहना!
एक दो बार तो मुझे दरख्वास्त मिली है वृद्धों की ओर से कि उनके रेल कर्मी बच्चों पर दबाव डालूं कि वे उन वृद्धों की परवरिश करें।
मुझे लगता है कि आपकी पोस्ट में जैसा है – पक्षी/जानवर वैसा महसूस करते होंगे दुनियां का बदलाव!
ई नीक काम करत अहा। जउन अउधी म लिखत अहा। हमका लगथै कि
आज अतरै, नाही आज एतनै होइक चाही।
अमरेंदर भैया ,
हमरा अवधी त ना आवेला. एही से भोजपुरी में लिखि रहल बानी.
अवधी के एगो कवि बाड़ें — पढीस जी. उनहूँ के कुछ कविता पढ़े के मिल जात त बड़ा मजा आ जाई.